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प्रवचन-१७ बातें जंचती हैं | उसके मन में विचार आया होगा कि 'आया था हाथी लेने और मिल रहा है पूरा राज्य! आया था युद्ध करने, मिल रहा है प्रेम और स्नेह! क्या होने वाला था और क्या हो रहा है। जिसकी स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी, ऐसी बातें बन रही हैं। मुझे कहाँ पता था कि वास्तव में मैं पुष्पमाला और पद्मरथ का पुत्र नहीं हूँ! आज कैसा रहस्य खुल गया? मेरी माता साध्वी, मेरे पिता देवलोक में देव! मेरा भाई सुदर्शनपुर का राजा! सहोदर को मैं शत्रु मान रहा था...!' ऐसे तो कितने-कितने विचार नमि राजा के मन में उभरे होंगे।
नमि राजा ने सैन्य को सूचित कर दिया कि 'युद्ध नहीं करना है।' चन्द्रयश नमि को लेकर नगर में प्रवेश करता है। नगरजनों को मालूम तो हो ही गया है कि मिथिलापति और सुदर्शनपुर के राजा सगे भाई हैं। सबके मन में आनन्द छा गया । युद्ध का भय टल जाने से और मदनरेखा के आगमन से लोगों में उत्साह-उमंग बढ़ गया है। हाँ, प्रजा को अभी यह मालूम नहीं हुआ है कि उनका राजा अब थोड़े ही दिनों में संसार त्याग करके संयमी साधु बन जाएगा! दोनों भाई माँ साध्वीजी के पास :
दोनों भाइयों ने महल में आकर, जहाँ साध्वी-माता बैठी थी वहाँ गए और भावपूर्ण हृदय से, आँखों में से आँसू बहाते हुए दोनों ने वंदना की। __ मदनरेखा साध्वी के चित्त में आनन्द हुआ। दोनों पुत्रों को साथ में देखकर उन्होंने समझ ही लिया था कि युद्ध अब नहीं होगा। हजारों जीवों का संहार रुक जाने से करुणापूर्ण साध्वीजी को अत्यधिक आनन्द हुआ। साध्वीजी ने कहा : 'वत्स, तुम दोनों ने युद्ध नहीं करने का निर्णय किया, यह जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। भाई-भाई के बीच एक हाथी के निमित्त घोर संग्राम होता तो कितना भयंकर अनर्थ होता? अच्छा किया तुमने, अब मैं यहाँ से चली जाऊँगी?'
साध्वीजी की बात सुनकर चन्द्रयश ने कहा : 'हे परम उपकारिणी तपस्विनी माता, आपने यहाँ पधार कर हम दोनों को घोर पाप से बचा लिया। पिताजी को जैसे अन्तिम आराधना करवाकर दुर्गति से बचा लिया था वैसे हम को उपदेश देकर, दुर्गति से बचा लिया, आपका यह उपकार हम कभी नहीं भूलेंगे।'
नमि राजा ने कहा : 'हे तपस्विनी माता! आज मैं धन्य बन गया आपके
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