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प्रवचन- १७
२२९
मणिरथ ने युगबाहु की कपट से हत्या जब कर दी थी और माता मदनरेखा अपनी शीलरक्षा के लिए नगर छोड़कर... पुत्र चन्द्रयश का त्याग कर चली गई थी... तब से चन्द्रयश के हृदय में हलचल मच गई थी। हत्यारे चाचा मणिरथ की सर्पदंश से उसी रात मृत्यु भी चन्द्रयश ने देखी थी ... । बुद्धिमान और 'भावुक - सेन्सेटिव' मनुष्य ऐसी घटनाओं पर चिन्तनशील बने बिना नहीं रह सकता। ज्ञानदृष्टिवाले मनुष्य का चिन्तन वैराग्योत्पादक होता है। मोहदृष्टि वाले मनुष्य का चिन्तन राग-द्वेषोत्पादक होता है । चन्द्रयश के पास ज्ञानदृष्टि होगी ही, अन्यथा ऐसी घटनाओं से उसके हृदय में वैराग्य पैदा नहीं होता ।
त्याग के मार्ग पर चलने के लिए पुण्योदय भी जरूरी :
इतने वर्षों तक वैराग्य होने पर भी त्याग नहीं कर सका संसार का ! त्याग के लिए सानुकूल संयोग चाहिए ! सानुकूल संयोग के लिए ऐसा पुण्यकर्म अपेक्षित होता है। पुण्यकर्म के बिना सानुकूल संयोग प्राप्त नहीं होते और मनुष्य त्यागमार्ग पर चल नहीं सकता है। तात्पर्य यह है कि हृदय में वैराग्य होने पर भी मनुष्य प्रतिकूल संयोगों में त्याग नहीं कर सकता है । जम्बूकुमार का पूर्वभव राजकुमार शिवकुमार का था, जानते हो न ? शिवकुमार का हृदय वैराग्य से भरपूर था, संसारत्याग की प्रबल भावना थी । १२ वर्ष तक घोर तपश्चर्या की । फिर भी संयमजीवन - त्यागमार्ग नहीं पा सका था वह ! मातापिता ने रुकावट की थी न ?
मणिरथ की मृत्यु के पश्चात् राज्यभार चन्द्रयश को उठाना पड़ा। दूसरा कोई राजकुमार नहीं था कि जिसको राजा बनाया जा सके ! चन्द्रयश को राजसिंहासन पर बैठना पड़ा । विरक्त हृदय होने पर भी संसार के खेल खेलने पड़े उसको! आज उसको सानुकूल संयोग मिल गए, त्यागमार्ग पर चलने के लिए! राज्य की जिम्मेदारी उठ सके वैसा लघु भ्राता मिल गया! माता- साध्वी का मिलन हो गया। उसने नमि राजा से कहा :
'भाई, मेरा मन संसार से उठ गया है। मैं माता के पदचिह्नों पर चलना चाहता हूँ। मानवजीवन में ही मोक्षमार्ग की आराधना हो सकती है। शाश्वत् अविनाशी सुख पाने का पुरुषार्थ अब कर लेना है। संसार के क्षणिक... विनाशी सुखों के प्रति कोई आकर्षण नहीं रहा है मन में । तू राज्य का स्वीकार कर ले और मेरा मार्ग प्रशस्त कर दे !'
नमि राजा चन्द्रयश की बात ध्यान से सुनता है । उसके अन्तःकरण को
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