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प्रवचन- १३
१७२
विचार काँटें की तरह चुभते हैं क्या? नहीं, शक्कर जैसे मीठे लगते हैं वे विचार ! लगते हैं न मीठे ? खराब विचार ज्यादा मीठे लगते हैं !
फिर उनको मिटाने का पुरुषार्थ ही कैसे होगा? आप अपने भीतर देखो, बार-बार देखो। देखोगे तो अवश्य सोचोगे ।
याद रहे, शुद्ध चित्त, शुद्ध अन्तःकरण ही धर्म है । ' षोडशक' ग्रन्थ में इसी आचार्यदेव ने कहा है 'धर्मश्चित्तप्रभव' : कैसा चित्त धर्मस्वरूप बनता है ? विशुद्ध चित्त ! राग-द्वेष और मोह की अशुद्धि दूर होनी चाहिए । राग-द्वेष और मोह की अशुद्धि दूर होने से चित्त शुद्ध बनता है और पुष्ट बनता है। शुद्ध और पुष्ट चित्त ही धर्म है। धर्म को बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है, अपने भीतर ही ढूँढ़ो। इसलिए कहता हूँ कि भीतर देखो! जो वस्तु जहाँ होती है वहाँ से ही मिलती है, दूसरी जगह ढूँढ़ने से नहीं मिलती है।
जो चीज जहाँ होगी, वहाँ से मिलेगी :
रात्रि का समय था। एक बुढ़िया सड़क पर रोडलाईट के नीचे कुछ ढूँढ़ रही थी। वहाँ से ३-४ बच्चे जा रहे थे। उनकी बुढ़िया के प्रति सहानुभूति जाग्रत हुई। उन्होंने बुढ़िया से पूछा : 'माँ, क्या खो गया है ? क्या ढूँढ़ती हो?'
'मेरी सुई खो गई है, सुई को ढूँढती हूँ ।' बुढ़िया ने कहा। बच्चे भी उधर सुई खोजने लगे। बहुत खोजने पर जब सुई नहीं मिली, तब बच्चों ने पूछा : ‘माँ, यह बताओ कि सुई किधर गिरी थी ?' बुढ़िया ने कहा : सूई तो मेरे घर में गिर गई है, परन्तु वहाँ लाईट नहीं है, यहाँ प्रकाश है, इसलिए यहाँ ढूँढ़ती हूँ।' बच्चे पेट पकड़कर हँसने लगे और चल दिये वहाँ से ।
जो वस्तु जहाँ नहीं है, वहाँ खोजने से, हजारों वर्ष तक खोजने पर भी नहीं मिलेगी। जहाँ हो, वहाँ खोजने से मिल सकती है। धर्म को कहाँ ढूँढ़ते हो? बाहर धर्म नहीं है, धर्म भीतर है। अशुद्ध चित्त को शुद्ध करो, शुद्ध चित्त ही धर्म है। राग-द्वेष और मोह की अशुद्धि दूर करो। शत्रुता, ईर्ष्या, निर्द्रयता, तिरस्कार अशुद्ध दूर करो ।
जीवद्वेष : गंभीर प्रकार का अपराध :
सर्व प्रथम यह काम करना आवश्यक है। जीवसृष्टि के प्रति अनन्तकाल से जो अपराध करते आये हैं, उन अपराधों की परंपरा को तोड़ दो। जीवों के प्रति शत्रुता है, ईर्ष्या है, निर्दयता है... घृणा है, उसको मिटा दो। जीवों के प्रति
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