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प्रवचन-१५
२०६ गुण है। हाँ, इस दुनिया में यह गुण दुर्लभ है | उपकारी के उपकारों को भूल जाना, आजकल मनुष्य के लिए आसान हो गया है। एक बात याद रखना, जो मनुष्य उपकारी के उपकारों को भूल जाता है, उपकारी के प्रति स्नेह और आदर नहीं रखता है, वह मनुष्य धर्मआराधना करने के लिए अयोग्य है अपात्र है। कृतज्ञतागुण धर्मआराधक में होना ही चाहिए। इसका अर्थ यह होता है कि 'उपकारी-मैत्री' धर्मआराधना की नींव है। 'योगसार' नाम के प्राचीन ग्रंथ में अज्ञातमहर्षि ने कहा है कि धर्मरूप कल्पवृक्ष के मूल हैं मैत्री-प्रमोद-करुणा और माध्यस्थ भाव ।' बात बिल्कुल सही है। मैत्री वगैरह भावनाओं के बिना आत्मा में धर्म स्थिर रह ही नहीं सकता। ____ मणिचूड़ मुनिराज ने मणिप्रभ को एक महत्त्वपूर्ण बात कही... याद है? यो येन शुद्धधर्मे स्थाप्यते स तस्य गुरु:।' जो मनुष्य जिसके द्वारा शुद्ध धर्म पाता है, वह उसका गुरु कहलाता है! मुनिराज ने ऐसा नहीं कहा कि : ‘मदनरेखा तो अविरत-श्राविका है, मैं यहाँ सर्वविरतिधर साधु बैठा हूँ और उसको प्रणाम करना अविनय है, मेरी आशातना है। उसने अंतिम आराधना करवाई तो क्या हो गया? गुरु तो मैं हूँ।' मेरे जैसा साधु होता, तो ऐसी ही बात झाड़ देता! आज तो इस विषय में भी बड़ी गड़बड़ पैदा हो गई है। मानों कि मरे पास आप आए मुझे आपसे कोई स्वार्थ है, अथवा आपको मेरे भक्त बनाने हैं, या शिष्य बनाने हैं तो मैं क्या करूँगा? आप जिस महात्मा से, जिस व्यक्ति से सद्धर्म पाये होंगे, आपको जिसके प्रति श्रद्धा और प्रेम होगा, मैं उसकी बुराई करूँगा, आपके उपकारी के प्रति द्वेष-अरुचि पैदा करूँगा! आपके हृदय में उनके प्रति स्नेह नहीं रहे, तो ही मेरे प्रति स्नेह स्थापित होगा न! उपकारी, परम उपकारी के प्रति द्वेष पैदा करने जैसा पाप दूसरा नहीं है। परन्तु पुण्य-पाप की बातें करनेवाले भी कभी यह पाप कर लेते हैं। और वह भी 'धर्म' समझकर | अपना दुर्भाग्य ही समझना चाहिए। यह रोग अपने संघ में व्यापक रूप से फैल गया है।
देव यानी युगबाहु, मदनरेखा को 'गुरु' मान कर सर्व प्रथम उनको तीन प्रदक्षिणा देता है और प्रणाम करता है। बाद में मुनिराज को प्रणाम करता है, इस बात को मुनिराज उचित बता रहे हैं! अर्थात् पारलौकिक उपकार करनेवालों का कितनी ऊँची कोटि का महत्त्व है, यह बात समझने की है। भले, मदनरेखा साध्वी नहीं थी, गृहस्थ स्त्री थी, परन्तु युगबाहु के लिए तो सद्धर्म देनेवाली गुरु थी, आचार्य थी! युगबाहु का यह भाव यथार्थ था, उचित था, कल्याणकारी था।
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