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प्रवचन- १७
पुण्यानुबंधी पुण्य कैसे बंधता है?
धर्मक्रिया शुद्ध हो परन्तु मन अशुद्ध होगा तो इससे जो पुण्यकर्म बंधेगा वह पापानुबंधी ही बंधेगा। धर्मक्रिया शुद्ध होगी और मन भी शुद्ध होगा तो जो पुण्यकर्म बंधेगा वह पुण्यानुबंधी ही बंधेगा । पुण्यानुबंधी पुण्य से मन पुष्ट बनता है और ऐसा पुष्ट मन ही महान धर्मपुरुषार्थ कर सकता है। इसलिए बार-बार कहता हूँ कि मन को शुद्ध करो, शुद्ध मन से धर्मानुष्ठान करते रहो । मन की अशुद्धि दूर करने का सतत पुरुषार्थ करते रहो ।
निर्दय एवं निष्ठुर मत हो जाओ :
दुःखी जीवों के प्रति निर्दयता, कृपाहीनता, उपेक्षावृत्ति, मन की एक बहुत बड़ी अशुद्धि है, मलिनता है । 'वह दु:खी है तो मैं क्या करूँ ? उसके ऐसे पापकर्म होंगे, भले होने दो दु:खी, मैं इसमें क्या करूँ ?' यह भयंकर निर्दयता है । 'वह तो दुःखी होना ही चाहिए। उसने कइयों को दुःख दिए हैं। अब उसको मरने दो।' यह निष्ठुर हृदय का विचार है । 'मुझे उससे क्या लेना-देना है ? वह सुखी हो तो भले, दुःखी हो तो भले ।' यह उपेक्षावृत्ति है, मन की रोगी अवस्था है। ऐसा मन धर्म आराधना के लिए योग्य नहीं है । दुःखी जीवों के प्रति अत्यन्त दया-करुणा होना अनिवार्य माना गया है धर्मक्षेत्र में । दया और करुणा के बिना धर्मक्षेत्र में प्रवेश नहीं हो सकता है।
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दूसरा मनुष्य भूखा मर रहा हो और आप मजे से मिठाई खा सकते हो ? दूसरा मनुष्य नंगा फिर रहा हो और आप बढ़िया कपड़े पहनकर शृंगार सजा सकते हो? दूसरा व्यक्ति रास्ते पर सड़क पर सो रहा हो और आप बंगले में 'डनलोप' की गद्दी पर सो सकते हो ? दूसरा मनुष्य रोग और व्याधि में कराह रहा हो और आप आनन्द - प्रमोद कर सकते हो? यदि 'हाँ' तो आपका हृदय निर्दय है, करुणाहीन है, आप परमात्मा जिनेश्वरदेव का धर्म पाने के लिए योग्य नहीं हो। पात्रता - योग्यता के बिना धर्म पाया नहीं जा सकता। धर्म आत्मसात् नहीं बनता ।
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यदि आप दूसरे जीवों के दुःख से दुःखी होते हों, यदि आप दूसरों के दुःख दूर करने का प्रयत्न करते हों, अपना सुख देकर भी दूसरों को दु:खमुक्त करने का कार्य करते हों तो आप सुपात्र हैं, आपकी कोमल आत्मा में धर्मतत्त्व का प्रवेश होगा। मृदु जमीन में पानी उतर जाता है, पथरीली जमीन में पानी प्रवेश नहीं पाता है ।