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प्रवचन-१७
२२१ HD जीवद्वेषी और गुणद्वेषी व्यक्ति औरों की प्रशंसा सुनकर
नाराज होते हैं, इतना ही नहीं वे तो गुणीजन एवं पुण्यशाली व्यक्ति को भी बदनाम करने की कोशिश करते रहते हैं। • अच्छी बात सभी मान लें, यह संभव नहीं है। आदमी का दिल
जब कठोर और निष्ठुर हो जाता है तब उसके दिल में सच्ची या अच्छी बात भी नहीं जंचती! अपनी सच्ची और अच्छी बात भी न माने उसके प्रति न तो द्वेष करना है, न ही गुस्सा करना है...ऐसे लोग करुणा के
पात्र हैं। . जो सुखी हैं...समुद्ध हैं, निरोगी हैं, फिर भी जिन्दगी का
अधिकांश समय पापों में गुजारते हैं... वैसे जीवों के लिए भी
करुणा ही रखना है हमें तो! स.साधुता की भी पहली शर्त है करुणा, भावकरुणा! धर्मक्रियाएँ ___ यदि भावनाओं से भरी-पूरी नहीं हैं तो वे जीवंत नहीं होंगी।
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प्रवचन : १७
परम करुणानिधान आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी 'धर्म' का स्वरूप बताते हैं। सर्वज्ञभाषित अनुष्ठान का सौ-प्रतिशत फल पाने के लिए 'धर्म' का सर्वांगसंपूर्ण स्वरूप समझना अनिवार्य है। जैसे क्रियाशुद्धि आवश्यक है वैसे हृदयशुद्धि भी अनिवार्य है।
शुद्ध हृदय पुण्य से पुष्ट होता है | पुण्यानुबंधी पुण्यकर्म का बंध शुद्ध हृदय के बिना नहीं हो सकता है। 'पुण्यानुबंधी पुण्य' किसको कहते हैं, जानते हो? पुण्यकर्म के उदय से सुख के साधन मिलते हैं, विपुल भोगसामग्री मिलती है, यह तो जानते हो न! परन्तु उस सुखसामग्री का सदुपयोग करो तो नया पुण्यकर्म बंधता है और दुरूपयोग करो तो पापकर्म बंधता है। यदि आपका पुण्यकर्म पुण्यानुबंधी होगा तो आपको सदुपयोग करने का ही मन होगा, पापानुबंधी होगा तो दुरूपयोग करने का मन होगा।
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