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प्रवचन- १६
२१९
आये भी कैसे? उनको ऐसा ज्ञान मिला ही नहीं है । परन्तु मेरी सन्तान है न । मैं समझाऊँगी तो वे मान जायेंगे। विनयी हैं, सुशील हैं। हाँ, नमि का कुछ नहीं कह सकती, क्योंकि उसने मेरा दूध कहाँ पिया है ? चन्द्रयश ने तो मेरा दूध पिया है, बाल्यावस्था में मेरी शिक्षा भी पाई है । चन्द्रयश मातृभक्त भी है। जब मैं उस रात्रि में सुदर्शनपुर से निकल पड़ी थी, उस समय वह कितना रोया था ? पिता की हत्या हो गई थी और मैं उसको छोड़कर निकल गई थी। वह कितना दुःखी हो गया होगा उस समय ?' साध्वी सुव्रता के कदम तेज चलते हैं। मन में विचार भी तेज चलते हैं। हृदय में करुणा है, अपने पुत्रों को हिंसा के पाप से बचाने की तमन्ना है। 'इनका परलोक न बिगड़ जाए।' यह भाव करुणा है। उनके हृदय में यह भी है कि 'मेरे पुत्र भी राज्य का त्याग कर, चारित्र्यधर्म स्वीकार कर, कर्मक्षय कर के परमपद को प्राप्त करें!' संवेग करुणा है यह । साध्वी की प्रेमभरी वाणी :
नमिराजा ने सुदर्शनपुर को घेर लिया था । सुदर्शनपुर के द्वार बंध थे । युद्ध शुरू नहीं हुआ था। साध्वीजी सुव्रता वहाँ पहुँच गईं। सैनिकों ने साध्वीजी को युद्धमैदान पर देखकर आश्चर्य व्यक्त किया। साध्वीजी ने पूछा : 'भाई, आपका राजा नमि कहाँ है? मुझे उनसे मिलना है।' सैनिकों ने नमिराजा का निवास बताया। साध्वीजी उधर पहुँच गई। राजा साध्वीजी को देखकर खड़ा हुआ, प्रणाम किया और वह साध्वीजी के सामने जमीन पर बैठ गया ।
मदनरेखा ने आज ही अपने इस बेटे को देखा ! देखने चली थी राजमहल में! देखती है आज युद्ध के मैदान पर ! बाल्यावस्था नहीं देख पाई थी । आज युवावस्था में देख रही है । बिलकुल युगबाहु की ही मुखाकृति ! नमि का विनय देखकर सुव्रता साध्वी प्रसन्न हुई । साध्वीजी ने कहा : 'हे राजन, किसलिए युद्ध करते हो? कितना भयंकर जीवसंहार होगा ? कितने घोर पापकर्म बंधेंगे? राज्यसंपत्ति असार है, चंचल है, विनश्वर है । संसार के भोगसुख, सुख नहीं हैं, दुःख के ही कारण हैं । वैषयिक सुखों के विपाक कितने दारुण होते हैं ?
'मैं कहती हूँ, तू युद्ध मत कर । युद्ध करने पर पछतावा होगा तुझे । क्योंकि तू अपने ही भाई के साथ युद्ध करने आया है!' नमिराजा यह बात सुनकर चौंका! आश्चर्य से पूछता है : 'कौन मेरा भाई ?'
साध्वीजी ने कहा : 'चन्द्रयश तेरा भाई है!'
नमिराजा कुछ समझ नहीं पाता है, पूछता है : 'यह कैसे ?'
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