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प्रवचन-१५
२०७ युगबाहु-देव मदनरेखा से कहता है : 'देवी, तुम्हारी अब क्या इच्छा है? तुम्हें जो प्रिय हो वह करने को तैयार हूँ।' __मदनरेखा कहती है : 'मुझे तो मोक्ष ही प्रिय है। कर्मों के बंधनों से मेरी आत्मा मुक्त बने, यही मुझे प्रिय है, परन्तु अभी तो मुझे तुरंत ही मिथिला में पहुँचा दो। मैं अपने नवजात पुत्र का मुंह देख लूँ, बाद में मेरा समग्र जीवन धर्मआराधना में व्यतीत करूँगी।'
मदनरेखा का प्रत्युत्तर कितना प्रेरणादायी है! उसका अन्तःकरण मोक्ष ही चाहता है। बाह्य मन पुत्र का मुँह देखने की इच्छा करता है। मोह से नहीं, परन्तु 'उस बच्चे को कोई तकलीफ तो नहीं है, अपनी आँखों से देख लूँ, बस, फिर मुझे समग्र जीवन धर्ममय ही बिताना है।' इस भावना से वह मिथिला जाना चाहती है। ज्ञानदृष्टि खुलने पर संसार प्यारा लगता ही नहीं। संसार के सुख प्रिय लगते ही नहीं। उसकी चाहना बनी रहती है केवल मुक्ति की। बंधनों में रहते हुए भी चाहना रहती है मुक्ति की । 'सम्यक्दर्शन' का गुण प्राप्त होने पर संसार के प्रति वैराग्य और मोक्ष के प्रति संवेग-प्रीति जाग्रत हुए बिना न रहे। ___ मदनरेखा ने मुनिराज की भावपूर्ण हृदय से वंदना की। राजा मणिप्रभ को प्रणाम किया और युगबाहु-देव के साथ विमान में बैठ गई। देव ने चंद क्षणों में ही मदनरेखा को मिथिला में उतार दिया । मदनरेखा ने कहा : 'यह मिथिला है, भगवान मल्लीनाथ का यहाँ जन्म हुआ था, यहीं पर दीक्षा ली थी और यहीं पर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ था, यह पुण्यभूमि है। अतः हम सर्वप्रथम जिनमंदिर में चलेंगें।' दोनों जिनमंदिर में जाते हैं। दर्शन-पूजन करने दो उन दोनों को।
आज, बस इतना ही।
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