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प्रवचन-१६
२१६ से भरे पूरे हों तो दुनिया परमात्मा से प्यार करेगी, गुरुजनों का गौरव करेगी।
मदनरेखा वास्तव में परमात्मभक्त थी। वास्तव में गुरुभक्त थी। कितनी करुणा थी उस महासती में! मनःपर्यवज्ञानी ऐसे गुरुदेव ने उसकी प्रशंसा की। कामी-विकारी बना हुआ मणिप्रभ भी शान्त-प्रशान्त बन गया। महासतीने मणिप्रभ का कोई तिरस्कार नहीं किया, उसके विरुद्ध युगबाहुदेव को शिकायत भी नहीं कि : 'यह राजा मेरा शीलभंग करना चाहता था, दुष्ट है, अच्छा हुआ कि ये गुरुदेव मिल गए, अन्यथा क्या होता? मदनरेखा की भाव करुणा :
पापी व्यक्ति भी जब पापत्याग कर देता है तब उसके प्रति कोई गुस्सा नहीं, कोई वैरभावना नहीं। 'बेचारा कर्मवश जीव है, पापकर्म के उदय में जीव होश गँवा देता है, गलती कर बैठता है...।' ऐसा करुणापूर्ण विचार आता है। मणिरथ और मणिप्रभ-दोनों की तरफ मदनरेखा ने करुणापूर्ण विचार ही किये। हालाँकि मणिरथ तो उसी रात्रि में सर्पदंश से मर कर नरक में चला गया था। जब युगबाहुदेव ने मणिरथ की मृत्यु के समाचार मदनरेखा को दिए... मदनरेखा के मन में उसके प्रति भावदया जाग्रत हुई... 'मेरे निमित्त बेचारा पाप बाँधकर दुर्गति में चला गया, कितना दुःखी होगा, कितने घोर दुःख उसको सहने पड़ेंगे!' __ मिथिला में मदनरेखा युगबाहुदेव के साथ गई, वहाँ परमात्मा के मंदिर में जाकर मल्लिनाथ भगवंत की स्तवना की, जब दोनों मंदिर से बाहर निकले, पास में ही उपाश्रय था, उपाश्रय में साध्वीजी को देखा | मदनरेखा ने देव को कहा : 'अपन साध्वीजी के दर्शन कर लें।' दोनों साध्वीजी के पास गए, विनयसहित वंदना कर, साध्वीजी के पास बैठे। साध्वीजी ने 'धर्मलाभ' का आशीर्वचन सुनाया और सुपात्र जीव समझकर उपदेश दिया। संसार की भीषणता, भौतिक सुखों की विनश्वरता... धर्म की उपादेयता, कर्मबंध और कर्मक्षय का तत्त्वज्ञान... मोक्ष का स्वरूप... वगैरह बातें बड़े वात्सल्य से मधुर वाणी में सुनाई। जब उपदेश पूरा हुआ, युगबाहु देव ने मदनरेखा को कहा : 'देवी, चलो राजमहल में, पुत्रदर्शन करा दूं।' मदनरेखा ने साध्वी-जीवन स्वीकार किया :
मदनरेखा ने देव के सामने देखा | मदनरेखा गंभीर चिंतन में डूब गई थी। उसने कहा :
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