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प्रवचन-१६
२०९ है? सुना है ऐसा कोई उदाहरण? मात्र बाह्य धर्मानुष्ठान के सहारे, रागी-द्वेषी मनुष्य ने सद्गति पा ली हो, मोक्ष पा लिया हो, ऐसा कोई दृष्टांत मैंने तो नहीं पढ़ा शास्त्रों में! सुना भी नहीं! हाँ, शास्त्रों में ऐसा पढ़ा है कि अशुद्ध-मलिन चित्त से की हुई धर्माराधना भी संसार में डुबो देती है! जिस चित्त में जीवों के प्रति मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य-भाव नहीं होते हैं, जड़ पदार्थों के प्रति विरक्त भाव नहीं होता है वैसा चित्त संसार में परिभ्रमण ही करवाता है। उसकी बाह्य धर्मक्रियाएँ उसको दुःखों से बचा नहीं सकती हैं। दूसरों के दोष मत देखो :
ध्यान रखना, यह बात आपके स्वयं के आत्मनिरीक्षण-हेतु कह रहा हूँ। इस दृष्टि से दूसरों को नापने का काम नहीं करना । 'फलाँ भाई या फलाँ बहन धर्मक्रियाएँ तो बहुत करते हैं, परन्तु कितना क्रोध करते हैं? कितने दयाहीन हैं? कितनी ईर्ष्या करते हैं... उनकी धर्मक्रियाएँ किस काम की?' यदि इस प्रकार दुनिया में देखने जाओगे तो आपको सभी लोगों में कम या ज्यादा मात्रा में रागद्वेष दिखाई देंगे ही। क्योंकि संसार में कोई वीतराग नहीं है! द्वेषरहित नहीं है! तो फिर किसी में भी 'धर्म' आपको दिखाई नहीं देगा...! कर्मपरवश जीवों में दोष तो अनन्त होते हैं, प्रकट गुण थोड़े ही होते हैं। वास्तव में देखा जाय तो गुण देखने का विषय ही नहीं है! बाह्य क्रियाओं के आधार पर गुणों का अनुमान गलत भी सिद्ध हो सकता है। मनुष्य की आदत है बाह्य-क्रियाकलापों को देखना और गुण-दोष की कल्पना करना। दूसरों के आंतरिक गुण-दोषों का अनुमान करना छोड़ो। स्वयं का आत्मनिरीक्षण करो। 'दूसरे जीवों का अहित करने का विचार तो नहीं आता है न? दूसरों के दुःख दूर करने की भावना पैदा होती है या नहीं? दूसरे जीवों के गुण देखकर या सुनकर ईर्ष्या तो नहीं होती है न? पापी जीवों के प्रति द्वेष-तिरस्कार तो नहीं होता है न? पूछो, अपनी अन्तरात्मा से पूछो। ___संसार के प्रत्येक जीवात्मा को मित्र मान लिया, मित्र के प्रति स्नेह जाग्रत हो गया, फिर यदि मित्र दुःख में आ जाए तो उसका दुःख दूर करने की भावना पैदा होगी ही। 'परदुःखविनाशिनी करुणा' करुणा दूसरों के दुःख मिटाने की प्रेरणा देती ही है। मित्र का दुःख कैसे देखा जाय? मित्र दुःख में हो और अपने चैन से रहें, ऐसा हो सकता है क्या? आत्मा की तीन विशेषताएँ :
आत्मा की क्रमिक विकासयात्रा में जब आत्मा काल की अपेक्षा से चरम
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