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प्रवचन-१५
२०४ किया, मदनरेखा को तीन प्रदक्षिणा दी, बाद में मुनिराज को प्रणिपात कर, विनयपूर्वक मुनिराज के सामने बैठा । देवियों ने देव का ही अनुकरण किया, वे देव के पीछे जाकर खड़ी रह गईं। मणिप्रभ को लगा कि 'देव ने ऐसा अविनय क्यों किया?' उससे रहा नहीं गया... पूछ ही लिया। ___ 'देव भी यदि ऐसा अविवेक करेंगे तो फिर हम किसके सामने फरियाद करेंगे? चार-चार ज्ञान के धारक सुचारित्री ऐसे महामुनि को छोड़कर आपने प्रथम एक स्त्री को प्रणाम किया।' मणिप्रभ ने अपनी अरूचि प्रकट की। आगन्तुक देव प्रत्युत्तर दे ही रहा था कि महामुनि ने उसको रोक दिया और स्वयं मणिप्रभ से कहने लगे : 'मणिप्रभ, ऐसा मत बोलो। तुम पहचानते नहीं हो इस महानुभाव को | उसने जो किया है वह उचित किया है।'
मणिप्रभ को बड़ा आश्चर्य हुआ | उसने पूछा : 'भगवंत यह कैसे?' महामुनि ने कहा :
'इस मदनरेखा के पति का नाम युगबाहु था । युगबाहु युवराज था। उसके बड़े भ्राता मणिरथ, मदनरेखा के रूप में आसक्त बने थे। मदनरेखा को अपनी भार्या बनाने के लिए मणिरथ ने युगबाहु की हत्या कर दी, परन्तु मृत्यु के समय मदनरेखा ने अपने पति को बहुत ही सुन्दर आराधना करवाई, युगबाहु को समतारस पिलाया, चार शरण अंगीकार करवाए, नवकार मंत्र सुनाया। इस आराधना के प्रताप से युगबाहु मरकर पाँचवे देवलोक में उत्पन्न हुआ। उत्पन्न होने के बाद उसने अवधिज्ञान से देखा कि 'मैं कहाँ से आया हूँ।' जब उसने अपनी परमोपकारिणी पत्नी को यहाँ मेरे पास देखा, वह विमान लेकर यहाँ चला आया... यह वही देव है!' उपकारी महान है :
मणिप्रभ का हृदय हर्षविभोर हो गया | महामुनि ने कहा : 'मणिप्रभ, देव ने मदनरेखा को क्यों प्रथम प्रणाम किया, वह तू समझ गया न? जो मनुष्य जिसके उपकार से शुद्ध धर्म प्राप्त करता है, वह उसके लिए गुरु बनता है। यह देव मदनरेखा को अपना धर्माचार्य मानता है । 'यह मेरी पूर्वभव की पत्नी है,' इस कल्पना से वह नहीं आया है। 'इसने मुझे दुर्गति से बचाया, मुझे शुद्ध धर्म दिया, मुझे देवलोक में भेजा... मुझ पर अनन्त उपकार किये।' इस भावना से वह आया है।'
मणिप्रभ ने खड़े होकर युगबाहु-देव से क्षमा माँगी और बहुत-बहुत धन्यवाद
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