________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रवचन-१३
१७० 5. भीतर में देखने के लिए बाहरी चर्मचक्षु बंद करने पड़ते हैं।
बाहर की निगाहें बंद होंगी तो अन्तर्चक्षु अपने आप खुलेंगे।
अंतर की आँखों से भीतर की दुनिया को देखो। • वासना में बौराया हुआ दिमाग कभी भी स्वस्थ एवं संतुलित
नहीं रह पाता है। विवेकशून्य होकर मान-मर्यादा-आबरू सब . कुछ भूल जाता है। गर्भवती स्त्री यदि अपने संतान का भविष्य जानना चाहे, परखना चाहे तो जान सकती है। स्वयं के मनोभावों का अध्ययन ही उसे बता देगा कि आनेवाला बच्चा अच्छा होगा
या बुरा। .सभी जीव कर्मपरवश हैं। अपने ही कर्मों से जीव सुख-दुःख
पाता है! किसी को क्यों दोष देना कि : 'तुमने हमें दुःखी कर
डाला!"
प्रवचन : १३
करुणा के महासागर आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वजी ने 'धर्म' की परिभाषा की है। बहुत ही अच्छी परिभाषा की है आचार्यश्री ने! वे ऐसा नहीं कहते हैं कि 'महावीर स्वामी का बताया हुआ धर्म ही सच्चा धर्म है।' वे कह रहे हैं कि वह अनुष्ठान धर्म कहलाता है कि जो अविरुद्ध वचन से प्रतिपादित हो, यथोदित किया जाता हो और मैत्री-प्रमोद-करुणा और माध्यस्थ्य-भाव से किया जाता हो। ऐसा अनुष्ठान फिर किसी का भी बताया हुआ हो, 'धर्म' कहलाएगा। भले ही महावीर या पतंजलि का बताया हुआ हो। होना चाहिए अविसंवादी अनुष्ठान, यथोदितं अनुष्ठान और मैत्री-प्रमोद-करुणा तथा माध्यस्थ्य-भाव से परिपूर्ण अनुष्ठान!
धर्म का अनुष्ठान, धार्मिक क्रिया करनेवालों का हृदय मैत्री वगैरह पवित्र भावों से नवपल्लवित होना चाहिए। यदि मनुष्य के हृदय में मैत्री नहीं है, शत्रुता है, प्रमोद नहीं है ईर्ष्या है, करुणा नहीं है, तिरस्कार और निर्दयता है, माध्यस्थ्य-भाव नहीं है परन्तु घोर घृणा भरी पड़ी है, तो उस मनुष्य का किया
For Private And Personal Use Only