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प्रवचन- १३
१७५
ऐसा विवेकपूर्ण विचार मोहमूढ़ मनुष्य को नहीं आ सकता । वह तो अपने ही सुख का विचार करेगा, दूसरों का सुख छीन कर भी वह स्वयं सुखी होने के लिए सोचेगा। बस, यही तो शत्रुता है। इसका नाम अशुद्ध चित्त, मलिन अन्तःकरण। ऐसे पापमलिन अन्तःकरण में धर्म नहीं रह सकता ।
कामातुर को लाज कहाँ ? :
मणिरथ के मनोरथ तो देखो ! 'मैं किसी भी प्रकार से इस स्त्री को पाऊँगा । अच्छा-बुरा कुछ भी करना पड़े, मैं इसको पाकर रहूँगा । इसको प्राप्त किए बिना मुझे चैन नहीं पड़ेगा...।' लघुभ्राता के सुख को छीनने की कैसी नीच वृत्ति! शीलसम्पन्न नारी का शील लूटने की कैसी अधम मनोवृत्ति? जड़पुद्गल का चेतन जीव के प्रति अन्याय ही है । रूप क्या है ? पुद्गल का ही खेल ! एक कवि ने कहा है :
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'कोई गोरा कोई काला पीला, नैनन निरखन की
वो देखी मत राचो प्राणी, रचना पुद्गल की '
जड़ शरीर का रूप भी जड़ है, पौद्गलिक है। रूप का राग जड़ का ही राग है। वह राग चेतन आत्मा के प्रति अपराध करवाता है। छोटे भाई की पत्नी के प्रति रागी बना हुआ मणिरथ, भाई के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार अपना रहा है।
१. उपकारी के प्रति मैत्री |
२. स्वजन के प्रति मैत्री ।
३. परिजन के प्रति मैत्री ।
मणिरथ स्वजन-मैत्री भी नहीं निभा रहा है। मैत्री के मुख्य चार प्रकार बताए गए हैं :
४. सर्व जीवों के प्रति मैत्री |
युगबाहु मणिरथ का स्वजन था । मदनरेखा भी स्वजन ही कहलाएगी। मोह से अभिभूत मणिरथ मैत्री कैसे निभा सकता था? उसने मदनरेखा को अपने प्रति आकर्षित करने का प्रयोग शुरू कर दिया । मदनरेखा के प्रति काफी वात्सल्य प्रदर्शित करता है। अच्छे-अच्छे अलंकार बनवा कर देता है । सुन्दर वस्त्र लाकर देता है । कभी पुष्पहार भेंट करता है, कभी स्वादिष्ट तांबूल प्रदान करता है । मदनरेखा तो निर्दोष है! उसके मन में
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