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प्रवचन-१४
१८३ दूसरे पापी जीवों के दोषों की उपेक्षा करना। निषेधात्मक रूप है पापियों के प्रति द्वेष-धिक्कार नहीं करना। दूसरे जीवों का अहित मत करना : ___ करने जैसा नहीं करते हो तो दूसरो को नुकसान तो नहीं होगा, परन्तु नहीं करने योग्य करने से दूसरों को नुकसान होता है। दूसरों को सुख दे नहीं सकते, तो चलेगा! परन्तु दूसरों का सुख छीन लो, छीनने का प्रयत्न करो, तो नहीं चलेगा। दूसरों का दुःख दूर नहीं करोगे तो चलेगा, परन्तु दूसरों को दुःखी करने के काम करोगे तो नहीं चलेगा। तुम्हारे मन की इतनी शुद्धि तो होनी ही चाहिए। क्या तुम्हारा मन बोलता है कि 'दूसरे जीवों का अहित तो नहीं ही करूँगा! दूसरों को दुःखी नहीं ही करूँगा। दूसरों के सुख की ईर्ष्या नहीं ही करूँगा।' किसी पापी की भी भर्त्सना, तिरस्कार नहीं ही करूँगा।' बोलता है मन? दुनिया की या देश की बात जाने दो, नगर की और मुहल्ले की भी बात जाने दो, आपके परिवार के सदस्यों के प्रति तो मन ऐसा बोलता है न? आपके जो उपकारी लोग है, उनके प्रति तो मन ऐसा कहता है न? आपके जो परिचित लोग हैं, उनके प्रति तो मन ऐसा सोचता है न? धर्म का उद्भवस्थान : शुद्ध हृदय :
सभा में से : हमारा मन जो सोचता है वह तो आपके सामने कह ही नहीं सकते! अशुद्ध मन क्या सोचेगा?
महाराजश्री : पूर्ण शुद्ध न हो मन, पर क्या थोड़ा भी शुद्ध नहीं? यदि मन थोड़ा भी शुद्ध हो तो, उस मन में 'धर्म' का प्रसव हो सकता है। यदि पूरा अशुद्ध हो तो 'धर्म' की उत्पत्ति नहीं हो सकती। बाह्य धर्मक्रिया करने मात्र से 'धर्म' का आचरण नहीं हो जाता | हरिभद्रसूरीजी कहते हैं 'धर्म:चित्तप्रभवः' धर्म जो है वह शुद्ध चित्त का उत्पादन है! Religion is a Production of pure mind. ___ उपकारी जीवों के प्रति विधेयात्मक मैत्री नहीं सही, निषेधात्मक मैत्री तो रख सकते हो न? यदि इतना भी नहीं है तो जानवर से भी गए? जानवर में भी ऐसी मैत्री तो होती है! उपकारी के प्रति अपकार नहीं करेगा। उपकारी का अहित नहीं करेगा। मैं छोटा था तब एक कहानी सुनी थी मैंने एक सिंह की। जानवर में भी मैत्रीभाव :
जंगल में एक सिंह के पैर में काँटा चुभ गया। सिंह लंगड़ाता चलता है,
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