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प्रवचन-१३
१८१ आए। मदनरेखा तो तुरंत ही युगबाहु के पास बैठ गई...| पति का सिर अपने उत्संग में लेकर करुण क्रन्दन करने लगी। सैनिकों ने मणिरथ को घेर लिया और पूछा : 'यह कैसे हुआ?' मणिरथ ने कहा : मेरी लापरवाही से मेरे हाथ में से तलवार गिर गई।' सैनिकों ने ताड़ लिया कि 'राजा ने जान-बूझकर प्रहार किया है।' राजा अपनी जान बचाने के लिए वहाँ से भागा । बगीचे में से निकल रहा था कि अंधेरी रात में छुप कर बैठे हुए काले सॉप ने राजा को डॅस लिया! इधर सैनिकों ने जाकर युगबाहु के पुत्र चन्द्रयश को कहा : 'आप शीघ्र कदलीगृह में पहुँचो, आपके पिताजी की हत्या का प्रयास हुआ है।' चन्द्रयश फूट-फूटकर रोने लगा। शीघ्र वैद्यों को लेकर वह उद्यान में पहुँचा। वहाँ जाकर उसने देखा तो युगबाहु के शरीर में से बहुत सारा खून बह गया था। युगबाहु की आँखें बंद थीं, शरीर श्वेत पड़ता जा रहा था... फिर भी वैद्यों ने अपने उपचार शुरू कर दिए। चन्द्रयश मदनरेखा से लिपट कर रोने लगा। मदनरेखा के दिल में तीव्र वेदना थी। पुत्र के सर पर हाथ रखती हुई उसको शान्त करने का प्रयत्न करती है। इधर उसने देखा कि युगबाहु का जीवनदीप बुझने जा रहा है। उसके हृदय में उच्चतम मैत्री का भाव जाग्रत हुआ। 'यदि ये अशुभ भाव में...कषाय के भाव में मृत्यु पाएंगे, तो दुर्गति में चले जायेंगे | मैं उनको अन्तिम आराधना करवा कर उनके चित्त को स्वस्थ बना दूँ। परलोक का पाथेय उनको दे दूं।' ___ मदनरेखा ने अपने हृदय को, अपनी मनोव्यथा को दबाया और पति के निकट बैठकर, उनकी दृष्टि से दृष्टि मिला कर, खूब स्नेह और प्रेमभरे शब्दों में कहा : 'मेरे नाथ! अभी आप एकदम सावधान रहो। किसी प्रकार का खेद मत करो। किसी के प्रति क्रोध मत करना। सब जीव कर्मपरवश हैं। अपनेअपने कर्मों से ही जीवात्मा सुख-दुःख पाता है। दूसरे जीव तो निमित्तमात्र होते हैं। आप तो इस समय पुण्य का पाथेय बाँध लो। अपने दुष्कृत्यों की आत्मसाक्षी से निन्दा कर लो। मित्रों के साथ, शत्रु के साथ, स्वजन और परिजन के साथ क्षमापना कर लो।' ___ मदनरेखा युगबाहु का मृत्यु-समय सुधार रही है। स्वजनमैत्री को लोकोत्तर मैत्री बनाकर पति का परलोक सुधार रही है। आगे वह क्या करती है, कल बात करेंगे।
आज, बस इतना ही।
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