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प्रवचन-१२
____१६५ गद्गद् हो गया। उसने कहा ‘पथमिणी, मेरी आन्तर पुकार पंचपरमेष्ठि भगवंतों ने सुनी । अधिष्ठायक देवों ने मेरी सहायता की। अवश्य, महामंत्री के वस्त्र से हाथी उपद्रवरहित होगा। अभी समाचार लेकर चतुरा यहाँ आई समझ ले । क्या महामंत्री को मालूम है यह सारा वृत्तांत?' मन को शांत एवं स्थिर रखो : _ 'मैं सीधी यहाँ ही चली आई हूँ। महामंत्री को समाचार अब दूंगी।' पथमिणी वहाँ से पहुँची महामंत्री के पास | महामंत्री को भी पथमिणी ने सारे समाचार कह सुनाये | महामंत्री ने स्वस्थ मन से और प्रसन्नमुद्रा से समाचार सुने | उन्होंने पथमिणी से कहा : 'पुण्यकर्म और पापकर्म के उदयों के अनुसार संयोग बदलते रहते हैं। पापकर्मों का उदय समाप्त होता है। संयोग अच्छे बन आते हैं। पुण्यकर्म का उदय समाप्त होता है, संयोग प्रतिकूल बन जाते हैं। दोनो प्रकार के संयोगों में धर्मतत्त्व को समझनेवाले पुरुष समभाव धारण करते हैं।' संतुलित व्यक्तित्व :
महामंत्री का तत्त्वज्ञान कितना आत्मस्पर्शी था! विपरीत संयोगों में भी कोई चंचलता नहीं, अस्थिरता नहीं। 'कब मेरा कलंक दूर होगा?' ऐसी भी कोई उत्सुकता नहीं। राजा के प्रति कोई रोष नहीं। अच्छे संयोग, अच्छी परिस्थिति याँ पुण्यकर्म के उदय के साथ संबंधित हैं। पुण्यकर्म का उदय शाश्वत नहीं होता। पुण्यकर्म विनाशी और क्षणिक होते हैं। कभी भी पुण्यकर्म समाप्त हो सकते हैं, मनुष्य नहीं जान सकता है। पुण्यकर्म समाप्त होते ही सुख समाप्त! अलग-अलग प्रकार के पुण्यकर्म होते हैं। कभी किसी पुण्यकर्म का उदय होता है कभी किसी दूसरे पुण्यकर्म का। पुण्यकर्म और पापकर्म के उदय साथ चलते रहते हैं। दुनियाभर में ऐसा कोई जीव नहीं होता है कि जिसको कोई भी पापकर्म का उदय नहीं आता हो और सभी प्रकार के पुण्यकर्मों का उदय हों! कुछ पुण्यकर्म का उदय और कुछ पापकर्म का उदय...लेकर मनुष्य जीवन जीता है। यदि इस वास्तविकता को अच्छी तरह समझ लो तो अपनी आत्मा को सुख-दु:ख के संवेदनों से बचा सकते हो। हर्ष और उद्वेग के द्वन्द्वों से बचा सकते हो। खुशी-नाराजी के द्वन्द्वों से आत्मभाव को अलिप्त रख सकते हो। महामंत्री पेथड़शाह के पास यह तत्त्वज्ञान था । आत्मसात् किया हुआ तत्त्वज्ञान था, मात्र किताबों का ज्ञान नहीं।
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