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प्रवचन-११
१५२ __ मान-सम्मान मिलने पर अभिमान नहीं आना और ज्ञानी होते हुए भी अपने ज्ञान को प्रदर्शित नहीं करना, सामान्य बात नहीं है। एक बालक के लिए असाधारण बात है। देव-देवेंद्र की ओर से मान-सम्मान नहीं, कोई बड़े प्रतिष्ठित पुरुषों की ओर से भी मान-सम्मान नहीं, रास्ते चलते मामूली लोग भी कभी नमस्कार कर दें, तो क्या अनुभव होता है? छाती फूल जाती है न! 'मैं भी कुछ हूँ! I am also something! कोई गहन-गंभीर विषय का ज्ञान नहीं हो, सामान्य ज्ञान हो, तो भी प्रदर्शन करने की इच्छा जाग्रत होती है न? 'मैं ज्ञानी हूँ, मुझे सिखाने की जरूरत नहीं है!' बोल देते हैं न?
परमात्मा के पूजन में अवस्थचिन्तन करना बहुत ही आवश्यक है। परमात्मा के जीवन के सदेह-जीवन के विचारों में खो जाने का कुछ क्षणों के लिए! राज्यावस्था :
दूसरी अवस्था है राज्यावस्था। जो तीर्थंकर होने वाली आत्मा होती है राजकुल में ही उसका जन्म होता है। स्वाभाविक है ऐसी उत्तम आत्मा का राजकुल में जन्म होना। उसको इस विश्व में आकर महानतम कार्य करना होता है, विश्व के मनुष्यों को, देवों को, पशुओं को परमसुख और परम शांति का मार्ग बताना होता है। जिस किसी को विशिष्ट और असाधारण कार्य करने का होता है उसको वैसी सानुकूल परिस्थितियाँ चाहिए और सानुकूल साधनसामग्री चाहिए, तभी वह कार्य करने को शक्तिमान बन सकता है। जो राष्ट्रपति बनता है वह राष्ट्रपति भवन में रहने के लिए जाएगा ही। वह छोटे दो कमरे के मकान में रहकर राष्ट्रपति का कार्य नहीं कर सकता है। राजकुल में जन्म होने से वैसी सानुकूलताएँ स्वाभाविक रूप में मिल जाती हैं। अनासक्ति की आराधना :
दूसरी बात यह है कि तीर्थंकर की आत्मा इतनी विरक्त और अनासक्त होती है कि राजकुल में जन्म होने पर भी, राजसिंहासन पर आसीन होने पर भी उनको कोई राग नहीं होता, अभिमान नहीं होता। बड़ी स्वाभाविकता से वे राज्य का त्याग कर देते हैं। भगवान के सामने देखकर ऐसा चिन्तन करें : 'हे जिनेश्वर परमात्मा, आप राजसिंहासन पर आरूढ़ होने पर भी राजसत्ता से आपको कोई मोह नहीं। राज्य के वैभवों से कोई लगाव नहीं। भोगसुखों में कोई आसक्ति नहीं! आप कैसे अनासक्त योगी और मैं कैसा आसक्तिभरपूर भोगी! मेरे पास ऐसा कोई राज-वैभव नहीं है, कोई दिव्य सुख नहीं हैं, बीभत्स
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