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प्रवचन-१०
१३१ करें, मैं जाकर रानी को दूंगी, सब बात समझा दूंगी...।' पथमिणी ने सवालाख रूपये का मूल्यवान वह वस्त्र दासी को दे दिया । परोपकार की उत्कृष्ट भावना वाले मनुष्य जड़ पदार्थ चाहे कितना भी मूल्यवान हो, चेतन आत्मा के सामने उसका कोई महत्त्व नहीं समझते। चेतन के लिए जड़ का त्याग सरलता से कर देते हैं। रानी की वेदना का वर्णन सुनकर मंत्रीपत्नी का हृदय द्रवित हो गया और सवालाख के मूल्य का वस्त्र ओढ़ने के लिए दे दिया। 'यदि यह वस्त्र वापस नहीं लौटाया तो? बीच में दासी ने ही वस्त्र को गायब कर दिया तो?' ऐसा कोई विकल्प नहीं, कोई भय नहीं। करुणाभरे हृदय में भय कैसे रह सकता है? रानी लीलावती का बुखार गया :
दासी उस प्रभावशाली वस्त्र को लेकर पहुंची सीधी राजमहल। रानी लीलावती के पास जाकर उसने वस्त्र बताया और उसको कब ओढ़कर सो जाना, समझाया। रानी को भी महामंत्री के प्रति श्रद्धा थी। उसके मन में विश्वास हो गया । बुखार चढ़ने का जब समय हुआ, रानी ने वस्त्र ओढ़ लिया
और सो गई। बुखार नहीं आया! दासी नाच उठी। राजमहल में सबको आनन्द हुआ, मात्र कदंबा को नहीं! कदंबा को कैसे आनन्द होता? जिसके प्रति मनुष्य की ईर्ष्या होती है, उसके दुःख में ईर्ष्यालु को मजा आता है। उसके सुख में तो वह ज्यादा जलता है! लीलावती का बुखार उतर गया जानकर कदंबा प्रसन्न नहीं हुई। दूसरों का सुख देखकर प्रसन्न होनेवाला मनुष्य ही धर्मक्षेत्र में प्रवेश करने योग्य है। दूसरों का दुःख देखकर दुःखी होनेवाला मनुष्य ही धर्माधिकारी है। परन्तु कदंबा को धर्म से लेना देना ही क्या था? वह तो संसारसुखों की भिखारिन थी। रानी कदंबा का आक्षेप : __लीलावती का ज्वर महामंत्री के प्रभावशाली वस्त्र से दूर हुआ है-यह बात जब कदंबा ने सुनी तब उसके मन में एक भयंकर विचार आया। वह पहुंची महाराजा के पास | मुँह गंभीर बनाकर उसने राजा से कहा : 'महाराजा, एक गंभीर बात करने आई हूँ| आप शायद मेरी बात नहीं मानोगे। खैर, मानो या ना मानो, मेरा कर्तव्य है आपको बात बता देने का ।' राजा ने कहा 'ऐसी कौनसी बात है? बता दो।' कदंबा ने कहा : 'आप मुझ पर नाराज मत होना, परन्तु आपको मालूम है कि लीलावती महामंत्री के प्रेम में है...?' राजा इस भयंकर
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