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प्रवचन-११
१४४ निकाल कर शंकर को लगा दी। खून की धारा बहने लगी, परन्तु भील के मुख पर प्रसन्नता छाई हुई थी। जटाशंकर को तो पसीना हो आया था सर्दी में भी! काँप रहा था उसका शरीर | उस समय शंकर की मूर्ति में से दिव्य ध्वनि निकलती है :
'रे ब्राह्मण, अब तू समझा न, कि क्यों मैं इस भील को इतना चाहता हूँ? क्योंकि वह लेने नहीं आता, देने आता है। तू देने नहीं आता, लेने आता है | मैं उसको अपना परम भक्त मानता हूँ कि जो अपना सर्वस्व मुझे समर्पित कर देता है, मैं उसका बन जाता हूँ।' प्रेम समर्पण करवाता है!
जटाशंकर अवाक रह गया दिव्यवाणी सुनकर | खाली थाल लेकर अपने घर लौट गया। पुत्र भले नहीं मिला परन्तु उसको परमात्मा को पाने की राह मिल गई। परमात्मा से प्रेम कर लो, फिर कुछ भी माँगना नहीं पड़ेगा। बिना माँगे ही मिल जाएगा जिस समय जो चाहिए! यदि आप मंदिर में कुछ लेने जाते हो, तो आपका चित्त चंचल बना रहेगा। लेने की इच्छा, कुछ पाने की इच्छा चंचलता पैदा करती है। मंदिर में आपका मन स्थिर रहता है? नहीं न? स्थिरता से परमात्मा के दर्शन करते हो? परमात्मा की प्रतिमा पर आपकी दृष्टि स्थिर रहती है? रहती है तो कितनी देर तक? दृष्टि इधर-उधर हो जाती है न? हो जाएगी, क्योंकि आप लेने जाते हो, कुछ पाने की वासना चंचलता को जन्म देती है। ___ आपके हृदय में परमात्मप्रेम जाग्रत होगा कि आप समर्पण की भावना लेकर परमात्म मंदिर जाओगे | प्रेम आपको समर्पण के लिए ही प्रेरित करेगा। स्मरण और दर्शन के बाद आपकी वाणी मुखरित हुए बिना नहीं रहेगी। आपकी जिह्वा से परमात्मा का स्तवन स्वतः ही फूटने लगेगा। उस स्तवन में विरह की वेदना हो सकती है, परमात्मगुणों की प्रशंसा भी हो सकती है, परमात्मा से भावमिलन की प्रार्थना हो सकती है। सबकुछ ‘रेडीमेड' चाहिए आपको!
सभा में से : हम लोग तो रटे रटाए स्तवन ही बोलते हैं। हृदय में से कोई भाव स्वतः जाग्रत ही नहीं होता है।
महाराजश्री : प्रीतिपूर्ण और भक्तिपूर्ण हृदय में से स्वतः स्तवन निकलता
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