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प्रवचन-९
११३ स्नेह होता है। जो गुण, जो धर्मसाधना आपको प्रिय होती है, वह धर्मसाधना, वह गुण दूसरे मनुष्यों के जीवन में आप देखें तो आपको क्या होता है? प्रसन्नता होती है न? उनकी भक्ति करने का भाव जागृत होता है न?
अपने अन्तःकरण को टटोलो। अपने जीवन पर चिंतन करो। गुणवान होना फिर भी सरल है, गुणानुरागी होना सरल नहीं। स्वयं ब्रह्मचारी पिता, जब उसका लड़का ब्रह्मचारी बनना चाहे तो क्या कहेगा? ___ सभा में से : मना कर देंगे, 'छोटी उम्र में ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करने का है' - ऐसा कहते हैं। ___ महाराजश्री : इसका अर्थ तो यह होता है कि ब्रह्मचर्य-व्रत अच्छा है, इसलिए पिता ने व्रत ग्रहण नहीं किया है, परन्तु भोगसुख भोगने की शक्ति नहीं रही इसलिए व्रत ले लिया है। शक्ति होगी तब तक व्रत नहीं लेगा वह! सही बात है न? अन्यथा युवान पुत्र को ब्रह्मचारी बनाने में ब्रह्मचारी पिता कभी मना नहीं करे। ब्रह्मचर्य-व्रत जिसको प्रिय लगा और व्रत ग्रहण किया, ऐसा पिता तो लड़के-लड़की की शादी में भी शामिल नहीं होता। यदि कर्तव्य से शामिल होना पड़े तो शादी के कार्य में वह नीरस रहेगा। उसको ब्रह्मचर्यव्रत धारण करनेवाले बहुत प्रिय लगेंगे। ब्रह्मचर्य-व्रत तो उदाहरणरूप मैं कह रहा हूँ, कोई भी गुण हो, जो गुण अपने में हो, वह गुण दूसरों में देखकर प्रसन्नता ही होनी चाहिए। गुणवान पुरुषों के प्रति स्नेह और सद्भाव होना चाहिए। यदि स्नेह और सद्भाव प्रकट नहीं होता है, तो समझना कि अपना मन धार्मिक नहीं है!
सभा में से : हम लोग तो गुणवानों में भी दोष देखते हैं!
महाराजश्री : बहुत ज्यादा बुद्धिमान हो न आप लोग! गुणवान पुरुषों में भी दोष देखनेवाला और द्वेष करनेवाला धर्मक्षेत्र में प्रवेश पाने के लिए भी अयोग्य है। परन्तु आज तो ऐसे लोग ही ज्यादातर धर्मक्षेत्र में पाए जाते हैं न? क्योंकि कोई रोकनेवाला ही नहीं है! जिसके मन में आया वह घुस गया धर्मक्षेत्र में! घोर अव्यवस्था फैली है धर्मक्षेत्र में | आज ऐसे अयोग्य लोगों को बाहर निकालनेवाला कोई नहीं है और योग्य आत्माओं की कद्र करनेवाला कोई नहीं है। भीम श्रावक पेथड़शाह को भेंट भेजता है : __ महानुभाव भीम स्वयं ब्रह्मचारी था, ब्रह्मचर्य-व्रत उसको बहुत प्यारा था इसलिए दूसरे ब्रह्मचारी भी उसको प्रिय थे। उनका सन्मान करने का भाव
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