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प्रवचन-७ __ मुनिराज को 'फिट' (मिरगी) का दर्द था । प्रतिक्रमण चालू था और उनको फिट-मिरगी का दौरा पड़ा। वे लम्बे होकर सो गए, हाथ-पैर पटकने लगे, उनके मुँह से झाग निकलने लगा। उन भक्तों ने यह भी प्रतिक्रमण की ही क्रिया होगी, ऐसा समझकर वे लोग भी लम्बे होकर लेट गए, हाथ-पैर पटकने लगे; परन्तु मुँह से झाग नहीं निकल रहा था!
जब प्रतिक्रमण पूरा हुआ, मुनिराज ने भक्तों से पूछा : 'कहो, जैसे मैंने किया प्रतिक्रमण, तुमने भी वैसे ही देख-देखकर किया न?' तो एक भक्त ने कहा : 'महाराज साहब, सब क्रिया तो की, परन्तु एक क्रिया अधूरी रह गई।' महाराज ने पूछा : 'कौन-सी क्रिया रह गई?' भक्त ने कहा : 'आपके मुँह से झाग निकला था, हमारे मुँह से झाग नहीं निकला | हम लम्बे होकर सो गए थे, हाथ-पैर भी हमने पटके थे। सब कुछ किया था, मात्र झाग नहीं निकला मुँह से, इतनी अविधि हो गई।' समझ करके धर्मक्रियाएँ करें :
देखादेखी धर्मक्रिया करनेवालों ने तो धर्मक्रिया का रूप ही कुरूप कर दिया है। भले इन लोगों ने प्रतिक्रमण की धर्मक्रिया की, परन्तु वे लोग प्रतिक्रमण का अर्थ भी नहीं जानते होंगे! प्रतिक्रमण करनेवालों को 'आवश्यक सूत्र' को प्रमाणित ग्रन्थ मानकर, उस ग्रन्थ का अच्छा अध्ययन करके सूत्र और अर्थ को प्राप्त करके, प्रतिक्रमण की क्रिया करनी चाहिए।
सभा में से : हम लोग 'प्रतिक्रमण' का शब्दार्थ भी नहीं जानते!
महाराजश्री : इसलिए प्रतिक्रमण की क्रिया करने पर भी पापों के प्रति नफरत पैदा नहीं हुई। जीवन में से पापाचरण कम नहीं हो रहे हैं। ‘पाप करने जैसे नहीं हैं-'यह विचार भी दृढ़ नहीं हुआ। प्रतिक्रमण की धर्मक्रिया का प्रतिपादन करनेवाले शास्त्र पढ़े बिना, सुने बिना, समझे बिना, मात्र गतानुगतिक क्रिया करने से आपने क्या पाया?
रोजाना 'प्रतिक्रमण' करनेवाले लोग थोड़े ही मिलेंगे | पर्युषण महापर्व जैसे पवित्र दिनों में तो लाखों जैन स्त्री-पुरुष सुबह-शाम प्रतिक्रमण की धर्मक्रिया करते हैं न? कैसी होती है वह धर्मक्रिया? क्रिया तो आप कैसे भी कर लेते हो, परन्तु उस क्रिया को बतानेवाले शास्त्र के प्रति श्रद्धा और आदर है? यदि नहीं, तो वह क्रिया 'धर्म' नहीं बन सकती। जो भी धर्मानुष्ठान करना हो, उस धर्मानुष्ठान को बतानेवाले शास्त्रों को हमें मान्य करना ही होगा और उस शास्त्र में बताए अनुसार ही धर्मानुष्ठान करना होगा।
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