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प्रवचन-७
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जैन श्रमणपरंपरा में अन्य धर्मों के अध्ययन की परंपरा :
जैन श्रमणपरंपरा के इतिहास में इसका एक अनूठा उदाहरण मिलता है, सिद्धर्षिगणि का। यौवन में सिद्धर्षि श्रमण बने थे। कुशाग्र बुद्धि थी उनकी। जैन-दर्शन का अध्ययन करने के बाद उन्होंने भारतीय अन्य षड्दर्शनों का अध्ययन किया। जैन परंपरा की यह असाधारण विशेषता है। जैन साधु-साध्वी मात्र जैन परंपरा के और जैन-दर्शन के ही ग्रन्थ पढ़ते हैं, ऐसा नहीं है। जो सूक्ष्म बुद्धिवाले साधु-साध्वी होते हैं उनको अन्य भारतीय धर्मों का और दर्शनों का अध्ययन भी कराया जाता है। यह बहुत पुरानी परंपरा है। आज भी यह परंपरा चल रही है। जैनाचार्यों ने षड्दर्शन का प्रामाणिक निरूपण किया है। यदि खंडन भी किया है तो पूर्वपक्ष की प्रामाणिक स्थापना करके खंडन किया है। दूसरी ओर देखें तो दूसरे धर्म के संन्यासी या साधु जैन-दर्शन का प्रायः अध्ययन नहीं करते हैं, इसलिए वे लोग जैन-दर्शन की बातों का प्रामाणिक निरूपण नहीं कर पाते। डॉ. राधाकृष्णन् जैसे विश्वप्रसिद्ध दार्शनिक तत्त्वचिंतक ने 'हिस्ट्री ऑफ फिलोसॉफी' में जैन-दर्शन के 'अनेकान्तवाद' के विषय में प्रामाणिक निरूपण नहीं किया है। क्योंकि उन्होंने जैन-दर्शन का अध्ययन ही नहीं किया था। जिस प्रकार शंकराचार्य ने अनेकान्तवाद की परिभाषा की है, वैसी ही राधाकृष्णन् ने कर दी है।
प्रश्न : दूसरे धर्मवाले जैन-दर्शन का और बौद्ध-दर्शन का अध्ययन क्यों नहीं करते?
उत्तर : क्योंकि वेदान्ती लोग जैन और बौद्ध को नास्तिक मानते हैं | आस्तिक और नास्तिक की उनकी अपनी ही अलग परिभाषा है! जो वेदों को माने वह आस्तिक, जो वेदों को नहीं माने वह नास्तिक! नास्तिक दर्शनों के ग्रन्थ पढ़ने से वे लोग बचते हैं। शायद नास्तिक दर्शन पढ़कर वे नास्तिक बन जाएँ तो! भय होगा मन में! जैन परंपरा में ऐसा भय नहीं है। जो बुद्धिमान हो, तर्कशास्त्र पढ़ा हुआ हो, सत्य-असत्य का तार्किक भूमिका से निर्णय कर सके वैसा हो, उसको सभी धर्मों का अध्ययन करने की इजाजत है। अपनी विवेकदृष्टि खुल गई हो, फिर किसी भी धर्म के ग्रन्थों को पढ़ लो, कोई बुराई आपको चिपकनेवाली नहीं! निर्भय होकर पढ़ो। सिद्धर्षि को बौद्ध-दर्शन का आकर्षण जगा :
सिद्धर्षि ने जैन धर्म-दर्शन का अध्ययन कर लिया, उसके बाद वेदान्तदर्शन,
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