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प्रवचन- ७
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विवेकी बन जाओ...फिर चिन्ता नहीं । विवेकबुद्धि महत्त्वपूर्ण वस्तु है । ऐसी विवेकबुद्धि जब तक जाग्रत न हो तब तक इधर-उधर सुनने मत जाया करो। इधर-उधर का साहित्य भी मत पढ़ो। अन्यथा उलझ जाओगे । जहाँ आत्मा का प्रश्न है, परलोक का प्रश्न है, वहाँ उलझन नहीं चाहिए। वहाँ तो स्पष्टता चाहिए। रास्ता साफ दिखना चाहिए । परमात्मा जिनेश्वर देव का शासन, आत्म-कल्याण का स्पष्ट रास्ता दिखाता है । परन्तु शासन को समझना पड़ेगा, इसलिए धर्मग्रन्थों का श्रवण - अध्ययन और चिन्तन-मनन करना होगा ।
आचार्यश्री धर्म का स्वरूप समझा रहे हैं, उसमें वे कह रहे हैं कि अविरुद्ध शास्त्र के अनुसार जो प्रवृत्ति होती है उसको धर्म कहते हैं। धर्मप्रवृत्ति की प्रामाणिकता धर्मशास्त्र पर निर्भर करती है। वीतरागसर्वज्ञप्रणीत शास्त्र ही प्रामाणिक माने जा सकते हैं । अप्रामाणिक बनानेवाले होते हैं राग, द्वेष और मोह ! असत् प्रवृत्ति करानेवाले भी ये ही राग वगैरह होते हैं ।
राग-द्वेष व अज्ञान खतरनाक है :
राग पक्षपात करवाता है। द्वेष दूसरों के प्रति तिरस्कार करवाता है। दूसरे सही हों, फिर भी द्वेष उस सत्य को स्वीकार नहीं करने देता है । अपनी गलत बात हो, परन्तु राग गलत को भी सही सिद्ध करने देता है । अपनी गलत बात हो, परन्तु राग गलत को भी सही सिद्ध करने का प्रयत्न करवाता है। मोह यानी अज्ञान | अज्ञान तो सभी दोषों का उद्भवस्थान है । आत्मा के अज्ञान से ही जीव दुःखी होते हैं संसार में। जिन लोगों में राग-द्वेष और मोह भरा हो, उनकी बात विश्वसनीय नहीं हो सकती, क्योंकि वे गलत बात भी बता सकते हैं ।
मरिचि ने उस राजकुमार कपिल को गुमराह कर दिया था न ? जब राजकुमार ने मरिचि से पूछा कि 'आपके पास धर्म नहीं है? आप मुझे क्यों अपना शिष्य नहीं बनाते ? आप क्यों मुझे भगवान ऋषभदेव के श्रमणों के पास भेजते हो?' उस समय मरिचि ने क्या सोचा था ? उनका सोचना रागदशा से रंगा हुआ था। ‘मैं बीमार हूँ, भगवान के साधु मेरी सेवा करते नहीं, मुझे एक शिष्य की आवश्यकता है। यह राजकुमार मेरा शिष्य बन सकता है। मुझे जैसा चाहिए वैसा शिष्य मिला है।' यो शिष्यराग से प्रेरित होकर मरिचि ने कहा : ‘कपिल, धर्म जैसे ऋषभदेव के श्रमणों के पास है वैसे मेरे पास भी है ।' जब कि वास्तव में मरिचि श्रमण नहीं था, श्रमणपन उसने त्याग दिया था, फिर भी रागदशा ने असत्य बोलने को प्रेरित किया ।
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