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प्रवचन- ७
सिद्धर्षि 'ललितविस्तरा' पढ़ते हैं :
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जब इक्कीसवीं बार सिद्धर्षि अपने गुरुदेव के पास आए, गुरुदेव ने उनसे वाद-विवाद नहीं किया, तर्क का जाल नहीं बिछाया। अपने आसन पर एक धर्मग्रन्थ छोड़कर वे बाहर चले गए । सिद्धर्षि ने सोचा : 'गुरुदेव को वापस लौटने में एक घंटा लग जाएगा, क्या करूँ?' उन्होंने गुरुदेव के आसन पर पड़े हुए धर्मग्रन्थ को उठाया और पढ़ने लगे। उस ग्रन्थ का नाम था ‘ललितविस्तरा’। ‘नमोत्थुणं' सूत्र पर लिखी हुई विवेचना थी । लिखनेवाले कौन थे? ये थे महान आचार्य हरिभद्रसूरिजी ! जिन्होंने 'धर्मबिन्दु' ग्रंथ की रचना की है।
सिद्धर्षि ‘ललितविस्तरा' को पढ़ते ही चले गये । गुरुदेव ने जान-बूझकर वापस लौटने में देरी की। उनका पक्का अनुमान था कि सिद्धर्षि 'ललितविस्तरा' को पढ़ेगा ही । ज्यों-ज्यों वे 'ललितविस्तरा' पढ़ते गए, धर्मतत्त्व की यथार्थता का बोध होता गया । 'जिनवचन' यथार्थता पर श्रद्धा दृढ़ होती गई । उस धर्मग्रंथ के सहारे उनकी बुद्धि को, मन को, अन्तरात्मा को समाधान प्राप्त होता गया। उन्होंने परम संतोष पाया । 'जिनवचन ही श्रेष्ठ है' - ऐसी प्रतीति हो गई।
सिद्धर्षि जैन-दर्शन में स्थिर हुए :
जब गुरुदेव वापस लौटे, सिद्धर्षि उनके चरणों में गिर गए, आँखों में से आँसू बहते चले। गुरुदेव ने सिद्धर्षि को गले लगाया। सिद्धर्षि ने कहा : 'गुरुदेव! आपने मुझ पर परम करुणा की है। अपार धैर्य से आपने मुझे सम्हाला है। आपका यह अनंत उपकार है मुझ पर...।' इसके बाद सिद्धर्षि ने जो ‘उपमितिभवप्रपंच कथा' लिखी है, विश्व का अद्वितीय उपनय-ग्रंथ है वह । आप पढ़ना कभी उस ग्रंथ को ।
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कुछ समझे इस घटना में से? 'ललितविस्तरा' ने सिद्धर्षि को जिनवचन के प्रति पूर्ण श्रद्धावान बना दिया । उनका जीवन धर्ममय बन गया । चरित्रधर्म की आराधना से उन्होंने जीवन सफल बना दिया । 'जिनवचन अविरुद्ध है- 'इसका निर्णय करना है तो सूक्ष्म बुद्धि चाहिए । यदि निर्णय नहीं करना है तो विश्वास कर लो कि जिनवचन अविरुद्ध ही होता है । जिनमें राग नहीं और द्वेष नहीं ऐसे वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा का वचन विरुद्ध हो ही नहीं सकता, ऐसा विश्वास कर लो। रागी और द्वेषी मनुष्य के वचन विश्वसनीय नहीं बन सकते । हाँ, अत्यंत महत्त्व की बात बताता हूँ यह ।