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प्रवचन-७ बौद्ध-दर्शन आदि का भी अध्ययन किया। उनकी सूक्ष्म बुद्धि को बौद्ध-दर्शन का तर्कजाल बहुत पसंद आया । बौद्ध-दर्शन का अध्ययन वे एक बौद्ध-आचार्य के पास जाकर किया करते थे। बौद्ध-आचार्य भी सिद्धर्षि की पारदर्शी प्रज्ञा से काफी प्रभावित थे। उनके मुँह में पानी आ गया था, यदि सिद्धर्षि बौद्ध धर्म स्वीकार ले तो! बौद्धाचार्य ने सोचा कि 'सिद्धर्षि बौद्ध-दर्शन की बातों से एकदम प्रभावित होता जा रहा है और बौद्ध धर्म की प्रशंसा करने लग गया है।' एक दिन उस आचार्य ने सिद्धर्षि को प्रेम से, पास में बिठाकर कहा : 'सिद्धर्षि, तुम्हें बौद्ध धर्म अच्छा लगता है न?' सिद्धर्षि ने कहा : 'हाँ, मुझे बौद्ध धर्म-दर्शन की बातें काफी बुद्धिगम्य लगती हैं।' 'तो फिर तुम सत्य को स्वीकार कर लो न? बौद्ध संघ तुम्हारा स्वागत करेगा | तुम बौद्ध धर्म के महान आचार्य बन सकते हो। दुनिया को तथागत का निर्वाणमार्ग बतला सकते हो।' ___ बौद्ध-आचार्य की प्रेमपूर्ण बातों ने सिद्धर्षि को मोह लिया। उनके मन में आया : 'मुझे जैनधर्म से भी बौद्ध धर्म ज्यादा तर्कसंगत और बुद्धिगम्य लगता है, बुद्ध का मध्यममार्ग श्रेष्ठ लगता है, तो फिर बौद्ध धर्म मुझे अंगीकार कर ही लेना चाहिए। परन्तु मेरे गुरु का इस तरह विश्वासघात करके मुझे यहाँ नहीं रह जाना चाहिए | मैं अपने गुरुदेव के पास जाकर, उनसे मेरे मन की बात बताकर, यहाँ आ जाऊँगा और बौद्ध धर्म अंगीकार करूँगा।' ऐसा सोचकर उन्होंने बौद्ध-आचार्य को अपने विचार बता दिए | बौद्ध-आचार्य भी बड़े बुद्धिमान थे! उन्होंने सोचा : 'सिद्धर्षि जाकर जैनाचार्य से बौद्ध धर्म की बात करेगा, बौद्ध धर्म स्वीकार करने की बात करेगा, तब जैनाचार्य अनेकान्तवाद के अकाट्य तर्कों से बौद्ध-दर्शन का खंडन करेगा। इसको वे तर्क पसंद आ जायेंगे, फिर वह जैनधर्म को श्रेष्ठ मानने लगेगा।' ऐसा सोचकर बौद्धाचार्य ने कहा : 'देखो सिद्धर्षि, तुम भले अपने जैनाचार्य से बात करो, वे भी जैन-दर्शन के तर्कों से तुम्हें प्रभावित कर सकते हैं। उस समय तुम्हें जैन धर्म ही श्रेष्ठ लग सकता है। यदि तुम्हें बौद्ध धर्म स्वीकारना नहीं हो, तो भी तुम यहाँ आकर मुझे कह जाना...!' सिद्धर्षि वापस जैनाचार्य के पास आते हैं :
सिद्धर्षि का हृदय सरल था। उन्होंने बौद्ध-आचार्य की बात मान ली और अपने गुरुदेव के पास गए। गुरुदेव को उन्होंने बौद्ध दर्शन के तर्क बताए और बौद्ध धर्म की श्रेष्ठता बताई। गुरुदेव ने शान्त चित्त से सुन ली सारी बातें। जरा भी गुस्सा नहीं आया, जरा भी वात्सल्य कम नहीं हुआ गुरुदेव का! हाँ,
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