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प्रवचन-७
९० का अध्ययन नहींवत् हो गया। अध्ययन का ध्येय मात्र अर्थप्राप्ति हो गया । मनुष्य अर्थप्रधान और कामप्रधान बन गया | धर्मपुरुषार्थ का जीवन में स्थान ही नहीं रहा! देखो, अपने देश की किसी भी 'युनिवर्सिटी' में धर्मज्ञान की शाखा नहीं है! कानून, विज्ञान, वाणिज्य, कला...इत्यादि शाखाएँ हैं, धर्मज्ञान की शाखा ही नहीं है। प्रादेशिक भाषाओं के साथ अंग्रेजी भाषा पढ़ाई जाती है, संस्कृत-प्राकृत भाषाओं के प्रति दुर्लक्ष्य किया गया है। हमारे देश के तमाम धर्मों के ग्रन्थ ज्यादातर संस्कृत और प्राकृत भाषा में हैं, इन भाषाओं के विद्वान कितने मिलेंगे? यदि भाषाज्ञान दिया भी जाए, तो भी पढ़ने की इच्छावाले कितने? संसार के किसी भी व्यवसाय में संस्कृत-प्राकृत भाषा की उपयोगिता नहीं! धर्मपुरुषार्थ का लक्ष्य नहीं! फिर संस्कृत-प्राकृत कौन पढ़ेगा? जीवन में धर्मपुरुषार्थ की अनिवार्यता समझे बिना धर्मग्रन्थों के अध्ययन की अभिरुचि प्रकट नहीं होगी।
समग्र जीवन पर अर्थ और काम छा गए हैं। जीवन में धर्म का कहाँ और कितना स्थान है? धर्म को समझे भी नहीं हो फिर स्थान कैसे बनेगा? धर्म का स्वरूप समझो, क्योंकि आपके पास समझने की बुद्धि है।
सभा में से : बुद्धि तो है, परंतु सूक्ष्म बुद्धि नहीं है!
महाराजश्री : बुद्धि है तो सूक्ष्म बनेगी! सूक्ष्म बनाने का पुरुषार्थ करना पड़ेगा। इसलिए कहता हूँ कि तर्कशास्त्र (लॉजिक) पढ़ो। परन्तु पढ़ने की फुरसत ही किसको है? प्रयत्न-पुरुषार्थ किए बिना तो कार्यसिद्धि कैसे होगी? सूक्ष्म बुद्धि भी निर्मल होनी चाहिए :
दूसरी बात सुन लो। बुद्धि सूक्ष्म होने मात्र से भी धर्मतत्त्व की यथार्थता और सत्यता सिद्ध नहीं हो सकती है। बुद्धि सूक्ष्म होनी चाहिए, साथ ही साथ निर्मल होनी चाहिए | धर्म कोई वाद-विवाद की वस्तु तो है नहीं। निर्मलता नहीं होती है, धर्मतत्त्व का निर्णय करने की जिज्ञासा नहीं होती है तब सूक्ष्म-तीक्ष्ण बुद्धि धर्मक्षेत्र में भी वाद-विवाद पैदा कर देती है। आज जितने अलग-अलग पंथ और संप्रदाय दिखते हैं, वे कहाँ से निकले हैं? बुद्धिमानों की पैदाइश ही तो हैं! सूक्ष्म बुद्धि भी जब दुराग्रही बन जाती है, हठाग्रही बन जाती है, तब धर्मक्षेत्र में विवाद पैदा कर देती है। मनुष्य के स्वयं के जीवन में भी अनिश्चितता, चंचलता पैदा कर देती है।
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