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प्रवचन-७
८९ धर्म को समझने के लिए बुद्धि सूक्ष्म चाहिए : __ आचार्यश्री ने विशाल और उदार दृष्टिबिन्दु से 'अविरुद्धाद वचनाद' कहा है। वचन का अर्थ है शास्त्र। कोई भी शास्त्र हो, किसी का भी बनाया हुआ शास्त्र हो, चाहिए वह अविरुद्ध! उस शास्त्र में विरोध नहीं होना चाहिए। शास्त्र की युक्ति समझने के लिए और शास्त्र की परीक्षा करने के लिए बुद्धि चाहिए | स्थूल बुद्धि नहीं, सूक्ष्म बुद्धि चाहिए। इसीलिए इन्हीं आचार्यश्री ने अन्यत्र कहा है : 'धर्मो सूक्ष्मबुद्धिग्राह्यः' धर्मतत्त्व को समझने के लिए सूक्ष्म बुद्धि चाहिए। धर्मग्रन्थों की सत्यता-असत्यता का भेद करने के लिए सूक्ष्म बुद्धि यानी तीक्ष्ण-निपुण बुद्धि चाहिए। संस्कृत-प्राकृत भाषा का ज्ञान अनिवार्य है :
प्रश्न : अपने धर्मग्रंथ तो संस्कृत और प्राकृत भाषा में लिखे गए हैं, हमें उन भाषाओं का ज्ञान ही नहीं है। हम कैसे वे ग्रन्थ पढ़ सकते हैं? समझने की बात तो दूर रही!
उत्तर : आपको विज्ञान के उच्चकोटि के ग्रन्थ पढ़ने हों, शरीर विज्ञान के या भौतिक विज्ञान के ग्रन्थ पढ़ने हों, और वे ग्रन्थ अंग्रेजी भाषा में हैं, तो आप अंग्रेजी भाषा का ज्ञान प्राप्त करते हो या नहीं? वैसे आपको धर्मग्रन्थों को समझना है तो संस्कृत और प्राकृत भाषा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। आज तो उन ग्रन्थों के अध्ययन के लिए विशेष सरलता हो गई है! कुछ ग्रन्थ गुजराती और हिन्दी भाषा में अनूदित भी हो गए हैं। अपनी भाषा में तो पढ़ सकते हो न? है तमन्ना पढ़ने की? यदि धर्मग्रन्थों की बातें समझ नहीं सको तो समझानेवाले विद्वान साधुपुरुष भी मिलते हैं, जाओ उनके पास और समझो! बुद्धि तो है आपके पास | बुद्धि को सूक्ष्म बनाना चाहिए, तीक्ष्ण बनाना चाहिए। इसलिए थोड़ा तर्कशास्त्र का भी अध्ययन करना चाहिए।
सभा में से : यह तो अध्ययनकाल में हो सकता था, अब पढ़ने का समय ही नहीं है और पढ़ने की अभिरुचि भी नहीं है। क्या किया जाए? आज का आदमी : अर्थ-काम का दास : __ महाराजश्री : अध्ययन काल जिनका है, वे भी संस्कृत-प्राकृत भाषा कहाँ पढ़ते हैं? पढ़ते हैं तो मात्र पास होने के लिए! धर्मग्रन्थों का अध्ययन स्कूल के भाषाज्ञान से नहीं हो सकता। अंग्रेजों के शासनकाल में संस्कृत-प्राकृत भाषाओं
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