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प्रवचन-८
वकील का कहा मानते हो तो फिर ज्ञानी का क्यों नहीं? :
मान लो कि आप कोई मामले में उलझ गए, आपको कोर्ट में जाना पड़ा। आपको ज्ञान नहीं है कि जज के सामने क्या बोलना, कैसे बोलना। आप चाहते हो कि आप निर्दोष सिद्ध हो जायँ और उलझन से छुटकारा पा लें। आप किसके पास जाओगे?
सभा में से : वकील के पास!
महाराजश्री : क्योंकि कोर्ट के मामले में आप वकील को प्रामाणिक मानते हो । वकील आपका केस लेता है, समझता है और कोर्ट में आपको कैसे बोलना, वगैरह बताता है। जैसे वह कहता है वैसे ही आप कोर्ट में बोलते हो न?
सभा में से : वैसे ही बोलना पड़ता है, अन्यथा काम बिगड़ जाए!
महाराजश्री : आपकी दृष्टि कार्यसिद्धि की होती है। आप मानते हो कि केस जीतने के लिए वकील के कहे अनुसार ही बोलना होगा, चलना होगा...वगैरह | धर्मानुष्ठान, धर्मक्रिया के विषय में भी आपकी यह दृष्टि खुल जाय तो काम सिद्ध हो जाय, नैया पार लग जाय! 'यथोदितं अनुष्ठानम्' धर्म बनता है! जिस प्रकार अनुष्ठान करने को कहा गया है शास्त्रों में, उस प्रकार अनुष्ठान किया जाय तो वह अनुष्ठान धर्म कहला सकता है। धर्मग्रन्थों में सब प्रकार के अनुष्ठान बताए गए हैं। वे अनुष्ठान कब करने चाहिए, कितने समय में करने चाहिए, किस प्रकार करने चाहिए...वगैरह विस्तार से बताया गया है। सोचना यह है कि धर्म से हमें कार्यसिद्धि करनी है या नहीं? कार्यसिद्धि की जहाँ तमन्ना होती है वहाँ हम सब कुछ करने को तत्पर हो जाते हैं।
एक भाई थे, मेरे परिचित थे। 'ग्रेज्युएट' थे। धर्मस्थान और धर्मगुरुओं से परिचय नहीं था। पैसे ठीक ठीक कमाते थे। पत्नी भी अनुकूल मिली थी। शरीर निरोगी था। सब काम ठीक चल रहे थे। उस समय वे कहते थे : 'मैं धर्मक्रियाएँ करने में नहीं मानता, यह क्रिया इस प्रकार करनी चाहिए और इस प्रकार नहीं करनी चाहिए, धर्म के विषय में ऐसे बंधन नहीं होने चाहिए... ऐसी तो वे कई बातें करते। परन्तु एक दिन उनकी पत्नी को कोई व्यंतर या भूत लग गया। पत्नी का स्वाथ्य बिगड़ने लगा। वे महाशय चिंतित हो गए। डॉक्टरों की दवाइयों से कोई फायदा नहीं हुआ। हकीमों के इलाज कामियाब नहीं बने। किसी ने राय दी : 'तुम अमुक पीर की दरगाह पर जाओ, वहाँ फकीर जैसे कहे वैसे करना।' ये भाई चले गए उधर! पत्नी को निरोगी और स्वस्थ करने का लक्ष्य था, तमन्ना थी, कहीं भी जाने को तैयार थे, कुछ भी
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