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प्रवचन- ७
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धर्मग्रन्थों को सत्यता-असत्यता का भेद जानने के लिए सूक्ष्म बुद्धि चाहिए। निपुण प्रज्ञा चाहिए।
सूक्ष्म बुद्धि भी यदि स्वच्छ एवं आग्रहरहित - दुराग्रहमुक्त नहीं है, तो धर्मक्षेत्र में भी वाद-ववाद खड़े कर देती है। स्वयं के जीवन में तो अनिश्चितता एवं चंचलता पैदा करती हो है! ● जैन श्रमणपरंपरा में अन्य धर्मों के अध्ययन को परंपरा थी, आज भी है। जबकि अन्य किसी भी धर्म में जैनधर्म या दर्शन के अध्ययन को परंपरा है हो नहीं ।
बुद्धिशाली को तर्क और प्रेम से हो समझाया जा सकता है। गुस्सा करने से या बौखलाने से तो वह विद्रोही हो उठेगा। पारलौकिक और परोक्ष तत्त्वों के विषय में रागी-द्वेषी मनुष्यों को तर्कयुक्त बातें भी नहीं मानी जा सकतीं। कभी-कभी तर्क आत्मघाती बन जाते हैं, जब वे कुतर्क का रूप लेते हैं।
प्रवचन :
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वचनाद्यद्नुष्ठानमविरुद्धाद्यथोदितम् । मैत्र्यादिभावसंयुक्तं तद्धर्म इति कीर्त्यते ।
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महान श्रुतधर आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वरजी 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में धर्म का प्रभाव बताकर अब धर्म का स्वरूप समझा रहे हैं :
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कितने मार्मिक ढंग से धर्म का स्वरूपदर्शन कराया है! धर्म के अद्भुत प्रभावों को सुनकर या देखकर, धर्मक्षेत्र में प्रवेश करने आए हुए मनुष्य को आचार्यश्री द्वार पर रोकते हैं और कहते हैं : धर्मक्षेत्र में प्रवेश करना है? धर्म के अपूर्व प्रभावों का अनुभव करना है? तो सर्वप्रथम आपको आगम यानी शास्त्र मानने पड़ेंगे। धर्मतत्त्व के प्रतिपादक शास्त्रों की मान्यता स्वीकार करनी ही होगी। हर क्षेत्र में प्रमाणित शास्त्रों के, ग्रन्थों की मान्यता आवश्यक मानी गई है। न्याय के क्षेत्र में न्याय शास्त्रों की, ग्रन्थों की मान्यता आवश्यक मानी गई है। न्याय के क्षेत्र में न्याय शास्त्रों की विज्ञान के क्षेत्र में विज्ञान के मान्य ग्रन्थों की, आयुर्वेद में आयुर्वेद के ग्रन्थों की और 'एलोपथी' में 'एलोपथी' के