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प्रवचन-६
जटाशंकर को एक दिन भगवान शंकर ने दर्शन दिए और कहा : 'बेटा, मैं तुझ पर प्रसन्न हो गया हूँ, तू कुछ माँग मुझसे ।'
जटाशंकरने पूछा : 'भगवान आपका देने का तरीका क्या है?'
भगवान ने कहा : 'वत्स! मैं एक का सौ देता हूँ। तु मुझे एक रूपया देगा, मैं तुझे १०० रूपये दूंगा! जटाशंकर ने सोचा कि भगवान की यह प्रथम मुलाकात है। सुना है कि भगवान जो होते हैं क्षणभर में अदृश्य भी हो जाते हैं... एकदम कैसे भरोसा किया जाये! मैं एक रूपया दे दूँ और रूपया लेकर भगवान अदृश्य हो जायें तो? मेरा तो रूपया भी चला जाएगा। जटाशंकर बुद्धिमान था। उसने कुछ सोचा और भगवान से कहा : ।
'भगवान! आप दयालु हो, एक रूपये के बदले में सौ रूपये देते हो, इसलिए आप ऐसा ही कीजिए कि एक रूपया काटकर ९९ रूपये मुझे दे दीजिए! भगवान शंकर तो देखते ही रह गए! आप क्या कर रहे हैं?
जटाशंकर को तो लेना ही था! देने में वह समझता ही नहीं था। आप लोगों की क्या स्थिति है? भगवान के पास लेने जाते हो या देने? क्या देने जाते हो? पूजन करने जाते हो-उत्तम द्रव्य लेकर जाते हो? सुन्दर वस्त्र पहनकर जाते हो? मन्दिर में रखे हुए लाल-पीले गंदे कपड़े पहनकर पूजा करते हो न? फिर भाव कहाँ से आयेंगे?
उत्तम क्षेत्र में-तीर्थभूमि में जाओ, वहाँ तो अपने द्रव्य से ही पूजा करते हो न? वहाँ तो नीति-नियमों का पालन करते हो न? तीर्थयात्रा की विधि का ज्ञान है न? कुछ नहीं। कोई जिनाज्ञा का ज्ञान नहीं, कोई भी धर्मानुष्ठान के विधिविधान का ज्ञान नहीं, न परमात्मप्रीति और न परमात्मभक्ति! फिर भी आप 'धर्म करते हो' ऐसा मान रहे हो। कितना घोर अज्ञान!
जिनवचनानुसार अनुष्ठान-क्रिया करने की, परन्तु 'यथोदित' का पूर्णरूपेण ध्यान रखना है। द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से 'यथोदित' धर्मक्रिया करोगे तो परमपद प्राप्त करोगे और आत्मा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बन जाएगी।
आज, बस इतना ही!
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