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प्रवचन-६ को समझ कर करो। कौन-सी धर्मक्रिया कब करनी? कहाँ करनी? किस भाव से करनी? कौन-कौन-से उपकरणों से करनी..इत्यादि बातों का खयाल करो। हाँ, कभी भूल हो जाय, हो सकती है, परन्तु ऐसा कभी मत मानो और कभी मत बोलो कि 'सब चलता है, सब लोग अविधि से ही करते हैं, इस जमाने में इतना भी धर्म कौन करता है? हम तो ऐसे ही करेंगे। शास्त्रों में तो सब लिखा ही है, हमसे सब नहीं हो पाता' ऐसी तुच्छ बातें मत करो। जिनाज्ञा का कभी भी अनादर मत करो, धर्म नहीं करना हो तो मत करो, परन्तु धर्मानुष्ठान में अविधि की स्थापना तो मत करो।
ध्यान रखो, अविधि से धर्मक्रिया हो जाना, बड़ा अपराध नहीं है, परन्तु अविधि को उपादेय मानना, विधि का अनादर-तिरस्कार करना, घोर पाप है। अधर्म ही है। जीवन में अनजाने में पाप हो जाना बड़ा पाप नहीं है; परन्तु पाप को कर्तव्य मानना, पाप मजे से करना बहुत खतरनाक है। इससे निकाचित कर्मबन्ध हो जाता है, उस कर्म के उदय को भोगे बिना, दुःख भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। धर्मक्रियाओं में विधि का पालन कब होगा?
आजकल सर्वत्र यह दिखाई देता है कि धर्मानुष्ठान करनेवाले लोग प्रायः विधि का पालन नहीं कर रहे हैं। इतना ही नहीं, अविधि करते हैं और विधि मानते हैं। कोई विधि बताने जाये तो अनादर करते हैं, चिढ़ते हैं। ऐसे लोग वास्तव में धर्मप्रेमी नहीं होते हैं, धर्मद्वेषी होते हैं। उनके हृदय में धर्म के प्रति प्रेम नहीं होता है, द्वेष होता है। जहाँ प्रेम होता है वहाँ विधि की उपेक्षा नहीं होती है, स्वाभाविक ही विधि का पालन हो जाता है।
परमात्मपूजन करते समय परमात्मप्रेम जरूरी है : ___ मेरा कहने का मतलब समझें। जो भी धर्मानुष्ठान आप करें, उस धर्मानुष्ठान के प्रति हार्दिक प्रीति हो और वह धर्मानुष्ठान जिस प्रकार करने की जिनाज्ञा हो, उस प्रकार करें। जैसे : परमात्मपूजन का अनुष्ठान करना है, आपके हृदय में परमात्मा के प्रति प्रीति का भाव होना चाहिए, स्वार्थरहित प्रीति का भाव! निरूपाधिक प्रीति का भाव! परमात्मा से कुछ पाने का भाव नहीं, परमात्मा को ही पाने का भाव! और जब परमात्मा को ही पाने की तीव्र वासना जाग्रत होगी, आप अपना सब कुछ उनके पावन चरणों में न्यौछावर कर देने के लिए तत्पर हो जायेंगे! अरे, उस समय परमात्मा के अलावा दूसरा कुछ भी
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