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प्रवचन- २
२३
मन ही मन किए हुए दान - सुकृत की अनुमोदना कर रहा था। माँ पास ही बैठी थी, परन्तु बच्चे का मन महात्मा में खोया हुआ था । कितना परिचय था महात्मा का ? परिचय था ही नहीं, मात्र दर्शन किए थे ! परन्तु मुनिदर्शन बच्चे के लिए महान धर्म बन गया ! उस महान धर्म ने बच्चे को 'ट्रान्सफर' कर दिया गोभद्र श्रेष्ठी की हवेली में ! भद्रा सेठानी की कुक्षि में । धन-वैभव तो मिला था शालिभद्र को, परन्तु भोगसुख कैसे मिले थे? वात्सल्यपूर्ण पिता मिले, स्नेहपूर्ण माता मिली और प्रेमपूर्णा ३२ पत्नियाँ मिलीं । निरोगी और सर्वांगसुन्दर शरीर मिला। परिपूर्ण अखंड पाँच इन्द्रियाँ मिलीं... यह सब मिला तब जाकर शालिभद्र भोगसुख, विपुल भोगसुख भोग सका था । 'कामिनां सर्वकामदः' धर्म सभी प्रकार का भोगसुख देता है । धर्म में यह शक्ति है।
धर्म किस प्रकार देता है ?
धर्म चक्रवर्ती के भोगसुख दे सकता है । धर्म बलदेव-वासुदेव के भोगसुख दे सकता है। दिये हैं भूतकाल में, देता है वर्तमानकाल में और देगा भविष्यकाल में। धर्म ही देगा, दूसरा कोई तत्त्व संसार में है ही नहीं कि जो भोगसुख दे सके। यह मत पूछना कि कैसे देता है धर्म धन और भोगसुख ? धर्म की देने की पद्धति निराली है! हम नहीं समझ पायेंगे उसकी देने की 'मेथड'! उस पद्धति को समझने के लिए हमें योगी बनना होगा! अध्यात्म - योगी बनना पड़ेगा। विशिष्ट - ज्ञान संपादन करना होगा ।
सोचो, विचारो, उस ग्वाले के बच्चे को कोई कल्पना भी नहीं थी कि 'मैं खीर का दान दूँगा तो मैं श्रेष्ठीपुत्र बनूँगा और अपार धन-संपत्ति एवं विपुल भोगसुख मुझे मिलेंगे।' धर्म का फलविषयक ज्ञान उसे नहीं था, फिर भी फल मिला! हाँ, यदि फल का ज्ञान होता तो शायद वह फल नहीं मिलता ! उसने धर्म किया था सहज रूप से, निष्काम भाव से । उसे श्रेष्ठ भोगसुख मिल गये ! बिना माँगे मिल गये! धर्म से जो भीख नहीं माँगता है, धर्म उसको समृद्ध कर देता है। माँगनेवाले को जरूर टुकड़ा भी डाल देता है। देता है जरूर। धर्म को भिखमंगे पसंद नहीं !
धर्म धन देता है, भोग-सुख देता है, स्वर्ग के सुख देता है - सब प्रकार के सुख देता है; परंतु माँगनेवाले उसे जरा भी पसन्द नहीं ! मनुष्य को माँगने की आदत पड़ गई है। भिखारी बन गया है मानव । जहाँ जाता है वहाँ माँगता है ! कभी जबान से माँगता है तो कभी मन से माँगता है ! कभी काया से भी माँगता
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