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प्रवचन-५
६२ अपने रूप का प्रदर्शन करने के लिए 'हम धर्म करनेवाले हैं, ऐसा समाज को दिखाने के लिए।
'उन्माद ज्ञान का प्रतिबन्धक है। धर्मतत्त्व का अवरोधक है। चित्त में किसी भी प्रकार का उन्माद होगा, वास्तविक रूप में धर्म-आराधना नहीं होगी। देखो न, धर्मस्थानों में भी रूप और रूपये के प्रदर्शन कितने बढ़ गए? युवा पीढ़ी रूप के प्रदर्शन में पागल बनी है और आप लोग रूपयों के प्रदर्शन में पागल बने हो । धर्मस्थानों में कैसे वस्त्र पहन कर आते हो? है कोई मर्यादा का खयाल? भान हो कैसे? तान में हो! जोश में होश नहीं रहता। फिल्म के एक्टर-एक्ट्रेसों का अन्धा अनुकरण चल पड़ा है। धर्मस्थानों में जैसे वेश-स्पर्धा और रूपस्पर्धा के कार्यक्रम हों, वैसे लोग वेश बनाकर, केश बनाकर और रूप बनाकर आते हैं। ऐसे लोगों को हमें उपदेश देना! धर्मतत्त्व समझाना! समझ पायेंगे ऐसे लोग? जैसे वस्त्र पहनकर, जैसी साजसज्जा कर आप लोग गार्डन में घूमने जाते हो या कोई शादी में जाते हो, वैसी साजसज्जा के साथ धर्मस्थानों मेंमंदिर और उपाश्रय में आते हो-क्या यह उचित है? धर्म के अनुरूप है? परन्तु उन्माद छा गया है जीवन में। ___ जानकारी का भी एक उन्माद है। 'मैं तो सब कुछ जानता हूँ, मैंने तो हजारों प्रवचन सुन लिए...' यह उन्माद भी खतरनाक है। इससे ज्ञान-प्राप्ति के द्वार बन्द हो जाते हैं। कोई अभिनव ज्ञान प्राप्त नहीं होता। प्राप्त किया हुआ ज्ञान आत्मसात् नहीं होता। जीवन में ज्ञान का फल जो 'विरति' है, वह नहीं आती। जानकारी का अभिमान लेकर मनुष्य घूमता रहता है। सर्वप्रथम ज्ञान होना चाहिए अपने घोर अज्ञान का | अपने कितने अज्ञानी हैं, इस बात का ज्ञान होना चाहिए। तब ज्ञान पाने का सही पुरुषार्थ होगा। धर्म का प्रभाव :
धर्म का प्रभाव बताया जा रहा है। यह ज्ञान होना नितांत आवश्यक है। फिर जिज्ञासा होगी कि 'धर्म का स्वरूप क्या है? प्रभाव का ही ज्ञान नहीं होगा, तो धर्म का स्वरूप जानने का विचार तक नहीं आएगा। इसलिए ग्रन्थकार महात्मा धर्म का प्रभाव बता रहे हैं। कुछ लोगों का तो प्रभाव से ही सम्बन्ध होता है! उनको स्वरूप जानने का जिज्ञासा ही नहीं होती! जैसे एक बच्चा है, उसे दूध पिलाया जाता है। बच्चे को दूध का प्रभाव ही बताया जाता है न? कि 'दूध पीने से शरीर अच्छा बनता है।' दूध का स्वरूप जानने से उसे
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