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प्रवचन-५ __ महाराजश्री : मोक्ष पाने की प्रबल भावना मोक्षपुरुषार्थ को भी प्रबल बना देती है। मोक्षमार्ग की आराधना जब प्रबल बनती है, कर्मों का क्षय होता है, जब सर्व कर्मों का क्षय हो जाता है, आत्मा को मोक्ष-दशा प्राप्त हो जाती है। वास्तव में देखा जाय तो मोक्ष पाने की, मुक्ति पाने की भावना कहाँ है? वह मुक्ति तो अभी दूर है, क्या आप लोग घर और दुकान से मुक्ति पाना चाहते हो? धन-संपत्ति और भोगविलास से मुक्ति पाना चाहते हो? जब तक यहाँ के भौतिक वैषयिक सुखों से मुक्ति पाने की भावना नहीं, कर्मक्षयजन्य मुक्ति की बात करना आत्मवंचना नहीं है? अन्तरात्मा में टटोलो। आत्मनिरीक्षण करो। यदि सचमुच मुक्ति की भावना होगी तो धर्म अवश्य मुक्ति देगा। __ मोक्ष-मुक्ति-निर्वाण - कुछ भी कहो, है भावना वह पाने की? कल्पना भी है मोक्ष की आपके पास? कल्पना में हैं संसार के वैषयिक सुख और बातें करनी हैं मोक्ष की! हाँ, मैंने ऐसे लोग देखे हैं, जो बोलते हैं कि उनको मोक्ष पाना है! परन्तु मोक्ष के स्वरूप का उनको जरा भी ज्ञान नहीं! कहते रहते हैं कि उनको मोक्ष में जाना है, परन्तु वहाँ जाकर क्या करना है, वे कुछ भी नहीं जानते। कौन मानेगा उनकी बातें? उनका ही मन नहीं मानता है तो दूसरा कौन मानेगा? प्रियजनों का सहवास प्रिय लगता है, उनके मीठे वचन प्रिय लगते हैं, रूपवानों के रूप देखने अच्छे लगते हैं, रसनेन्द्रिय के प्रिय पदार्थ भोगने हैं, भोगविलास के बिना चैन नहीं पड़ता है, और बातें करनी है मोक्ष की! सुअर के दो सवाल :
नारदजी का उत्साह तो मंद पड़ ही गया था। फिर भी एक दिन वे पहुँच ही गये! विमान को उस मैदान में छोड़कर नारदजी नगर के बाहर जहाँ गटर बहती थी वहाँ पहुँच गये। उन्होंने देखा उस सेठजी को! गटर में झूम रहे थे सेठानी के साथ! बच्चे भी थे पाँच-सात! नारदजी ने दूर से चिल्लाया : 'सेठजी?' उस सुअर ने नारदजी की ओर देखा और बोले : 'ओह! देवर्षि, आप इधर भी पधार गये?' 'आना ही पड़े न, आपको लेने? चलो वैकुंठ में चलना है न?' 'भगवन्! वैकुंठ में चलने की मेरी भावना पूरी है, परन्तु...' 'परन्तु क्या? अब बहाना मत बनाओ, सेठ...'
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