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प्रवचन-५ दिखाई नहीं दिया, सारे 'गोडाऊन' में ढूँढ़ा, फिर भी नहीं मिला | नारदजी को चिंता हुई। वे बाहर आये | इधर-उधर देखते हैं, वहाँ कुछ मजदूर थे, वे आये और नारदजी को प्रणाम किया । मजदूरों ने पूछा : 'महाराज, क्या ढूँढ़ते हो आप?' 'भाई, इस 'गोडाऊन' में एक बिल्ला था, तुम लोगों में से किसी ने देखा था क्या? 'नहीं महाराज, हमने तो नहीं देखा?'
मजदूर विचार में पड़ गए कि 'नारदजी को बिल्ले से क्या काम होगा?' बेचारे मजदूर? उनको कहाँ पता था कि इस 'गोडाऊन' के मालिक का पिता ही बिल्ला था। नारदजी को देखकर दूसरे भी मजदूर जो दूर बैठे थे, वहाँ आये और एक मजदूर ने बताया कि जब ‘गोडाऊन' से अनाज के बोरे उठाकर वह बाहर आ रहा था उस समय एक बिल्ला बीच में आया था और अनाज का बोरा उस पर गिर पड़ा था। बिल्ला वहीं पर दबकर मर गया था और उस मजदूर ने उसको बाहर फेंक दिया था। नारदजी सोच में पड़ गये। वे अपने विमान के पास आये। 'अब उस सेठ को कहाँ ढूँढ़ने जाऊँ? मरकर कहाँ पैदा हुआ होगा? भगवान को पूछना पड़ेगा...' भगवान का विचार आते ही नारदजी काँप गये । 'भगवान को मैं क्या मुँह दिखाऊँगा? भगवान तो मना ही कर रहे हैं कि वह सेठ वैकुंठ में नहीं आएगा, आना ही नहीं चाहता...।' फिर भी नारदजी हिम्मत करके पहुँचे भगवान के पास वैकुंठ में।
भगवान ने कहा : 'कहो नारदजी, क्या हुआ उस जीवराज सेठ का? ले आये? १३ नंबर का कमरा खाली है...।'
नारद ने कहा : 'भगवंत, वह बिल्ला तो मर गया, मेरे जाने से पहले ही।' 'वह नहीं आएगा वैकुंठ में! उसे वैकुंठ के सुख नहीं चाहिए! उसे तो संसार के विषयसुख ही चाहिए!'
'परन्तु भगवंत, वह तो आपका नाम जपता था, आपका पूजन करता था, आपका स्तवन करता था...'
'हाँ, सही बात है। उसको मालूम था कि यह सब करने से संसार के प्रिय विषयसुख मिलते हैं...।'
'तो क्या वह वैकुंठ में आने की तीव्र इच्छा प्रदर्शित करता था, वह...' 'मात्र दंभ! मात्र बोलने में था वैकुंठ! हृदय में संसार...।'
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