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प्रवचन-४
४६ इसका अर्थ समझे? धर्म से सुख जो मिलते हैं, धर्म जो सुख देता है वह 'डायरेक्ट' - सीधा नहीं देता | पुण्यकर्म के माध्यम से देता है। अग्नि से भोजन बनता है-पकता है, परन्तु Direct-सीधा नहीं पकता | चावल पकाने हैं, आप चावल को अग्नि में डाल दो तो पक जायेंगे क्या? जल जायेंगे न? आपको बरतन में चावल को डालकर आग पर रखना होगा, तभी चावल पकेंगे, वह भी तुरन्त नहीं, कुछ तो समय लगेगा ही। धर्म सुख देता है, परन्तु पुण्यकर्म द्वारा देता है। भौतिक सुखों की बात करता हूँ | आध्यात्मिक सुख तो पापकर्मों के क्षय से, नाश होने से मिलता है। हाँ, यदि आपको मानसिक और आध्यात्मिक सुख तात्कालिक चाहिए तो धर्म तात्कालिक देगा। परन्तु पापकर्मों के क्षय की भी एक प्रक्रिया है! उस प्रक्रिया में से तो गुजरना ही पड़ेगा।
सभा में से : हम लोगों को तो तत्काल भौतिक सुख चाहिए!
महाराजश्री : वैसे पुण्यकर्म लेकर जन्मांतर से आत्मा आई होगी, तो तत्काल भौतिक सुख मिलेंगे। यदि पुण्यकर्म ऐसा नहीं है आत्मा के पास, तो लाख उपाय करें, सुख मिलने का नहीं। यदि मकान की टंकी में पानी नहीं है, तो नल को कितना भी घुमाओ, नल के ऊपर सर पटको; तो भी पानी नहीं आएगा नल में से! हाँ, सर में से खून जरूर आएगा। योगदृष्टि खुले बिना धर्मतत्त्व नहीं आएगा समझ में :
मनुष्य की इच्छानुसार भौतिक सुख नहीं मिल सकते। आध्यात्मिक सुख मिल सकता है तत्काल । आध्यात्मिक सुख यानी आत्मिक शान्ति । मानसिक प्रसन्नता का सुख मिल सकता है धर्म से! एक बात समझ लो : जब तक हृदय में शारीरिक-ऐन्द्रिक और भौतिक सुखों की ही कामना भरी पड़ी है, आत्मा की बिल्कुल विस्मृति है, तब तक धर्म को समझे ही नहीं हैं।
धर्म का मर्म समझनेवाला मनुष्य शारीरिक और भौतिक सुखों के पीछे पागल नहीं बनता। वह भोगी हो सकता है, भोगदृष्टिवाला नहीं हो सकता। योगदृष्टि खुले बिना धर्मतत्त्व को जीव समझ नहीं सकता। हाँ, धर्मक्रियाएँ तो भोगदृष्टिवाला भी करता है, उस जीवराज सेठ की तरह! जीवराज पूजा-पाठ करते थे, माला-जाप करते थे...करते थे धर्मक्रिया, परन्तु उनके हृदय में क्या था? जब नारदजी भगवान का विशेष विमान लेकर पुनः उस शहर में आए, उस मैदान पर विमान को छोड़कर नारदजी जीवराज की दुकान पर गए । सेठ ने स्वागत किया नारदजी का | नारदजी ने सेठ को कहा : 'सेठ, चलो
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