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प्रवचन-४ के आगे मोक्ष की बातें नहीं करनी चाहिए। एक ऐसा ही 'भगत' कुछ दिन पहले मेरे पास आया था। किसी उपदेशक ने उसको 'मोक्ष' शब्द सिखा दिया होगा! मैंने उससे पूछा : 'आप धर्मक्रिया किस उद्देश्य से करते हो? उसने कहा : मोक्ष के उद्देश्य से करता हूँ?' मैंने कहा : 'मोक्ष का स्वरूप जानते हो? मोक्ष में आत्मा का रंग काला होता है या लाल?' ___ फटाक से उसने जवाब दिया : 'वहाँ तो आत्मा सिद्ध होती है, सिद्ध का रंग लाल होता है।'
मुझे हँसी आ गई। उसको इतना भी ज्ञान नहीं था कि मोक्ष में आत्मा अरूपी होती है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हुए बिना मोक्ष की चाह हो ही नहीं सकती। चाह के बिना माँग कैसे हो सकती है? इसलिए कहता हूँ कि जिस मोक्ष को आप चाहते नहीं उसको माँगने का दंभ छोड़ दो। ऐसा अभिनय करने से क्या फायदा ? दंभ से कमायी हुई इज्जत मिट्टी के महल जैसी है। ऐसा दंभ करने में समय बरबाद करने के बजाय मोक्ष का स्वरूप समझने का प्रयत्न करो। आत्मा का शुद्ध स्वरूप समझो। वह शुद्ध स्वरूप पसन्द आ जाये तो मोक्ष पसन्द आ गया! फिर मोक्ष माँगो!
सभा में से : आप मोक्ष का स्वरूप समझाइए न!
महाराजश्री : मोक्ष के अस्तित्व पर तो श्रद्धा है न? 'मोक्ष है' ऐसा तो मानते हो न? है, संसार है तो मोक्ष होना ही चाहिए। अशुद्ध आत्मा है तो शुद्ध आत्मा होनी ही चाहिए। अशुद्ध है तो शुद्ध का अस्तित्व हो सकता है। संसार में जीव अशुद्ध होते हैं, मोक्ष में जीव शुद्ध होते हैं। अशुद्धि है कर्मों की । आठ कर्मों की अशुद्धि है तब तक आत्मा संसारी है। आठों कर्मों का क्षय आत्मा का मोक्ष है! कर्मों का जिससे क्षय होता हो, उसका नाम धर्म है। इसलिए ग्रन्थकार ने कहा कि 'धर्म मोक्ष देता है।'
सर्व कर्मों का क्षय होने से आत्मा परम विशुद्ध हो जाती है। उस विशुद्ध आत्मा का अनन्त गुणमय स्वरूप होता है। मुख्य कर्म आठ होते हैं, उनके क्षय होने से मुख्य आठ गुण आत्मा में प्रकट होते हैं।
ज्ञानावरण कर्म के क्षय से अनन्त ज्ञान प्रगट होता है। दर्शनावरण कर्म के क्षय से अनन्त दर्शन प्रगट होता है। मोहनीय कर्म के क्षय से वीतरागता प्रगट
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