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प्रवचन-२
___ २२ भी धर्म का ही फल होगा | धर्म के प्रभाव से ही भोगसुख मिलेंगे। मिले थे न शालिभद्र को भोगसुख? __भगवान महावीर के समय में हो गया था वह भोगीभ्रमर | रोजाना-प्रतिदिन दैवी भोगसुख के साधन उसको मिलते थे। बत्तीस औरतों का वह पति था। भोगसुख भोगने में-पाँचों इन्द्रिय के प्रिय विषयों के उपभोग में वह इतना मग्न था कि मगधसम्राट श्रेणिक का नाम भी नहीं जानता था! जिसके राज्य में, जिसके नगर में वह रहता था! इतने भोगसुख उसको कैसे मिले थे? धर्म से! सुपात्रदान के धर्म से! पूर्व जन्म में शालिभद्र ग्वाले का पुत्र था। गरीब था। एक दिन खीर खाने की इच्छा हुई, तो उसकी माँ ने इधर-उधर से दूधचावल-शक्कर एकत्र की और खीर बनाकर बच्चे को दी। थाली में बच्चे को खीर परोस कर वह पानी भरने बाहर चली गई। इधर एक तपस्वी मुनि भिक्षा लेने आ गए | बच्चे को तपस्वी मुनि के प्रति प्रीति हुई, अपने घर बुलाया और खीर दे दी मुनि को! जिस खीर के लिए वह रोया था, रो-रोकर खीर पाई थी... दे दी मुनिराज को! प्रसन्न चित्त से दी थी उसने, यह मत भूलना। देने के बाद, मुनि के चले जाने के पश्चात् भी अफसोस नहीं किया था उसने । 'अरे, मैंने क्यों सारी की सारी खीर दे दी...थोड़ी देता और थोड़ी रखता तो अच्छा होता' ऐसा कोई विचार नहीं आया। मुनि के जाने बाद भी उसकी मनःकल्पना से मुनि नहीं जाते हैं। मुनि की शान्त-प्रशान्त मुखमुद्रा और कृपापूर्ण आँखें...बच्चा भूल नहीं पाता है। केवल खीर का दान नहीं था, प्रेम का दान था! :
वह प्रीति-दान था । मात्र कर्तव्यपालन नहीं था। 'अपने घर पर मुनिराज आए हैं तो बुलाना चाहिए, कुछ भिक्षा देनी चाहिए...' यह हुआ कर्तव्य का विचार | इस विचार में प्रेम या स्नेह की स्निग्धता नहीं होती। रूक्ष विचार होता है। ___ मात्र दानधर्म ही नहीं था, वह मुनिप्रेम का भी वहाँ धर्म था। मुनिप्रेम, साधुप्रेम, त्यागप्रेम... यह उत्तम भावधर्म है। उत्तम भावधर्म का फल भी उत्तम मिलता है। मात्र खीर का दान करने से वह शालिभद्र नहीं बना था। यदि ऐसे शालिभद्र बना जाता हो तो आप लोग एक थाली भर के खीर क्या, एक टंकी भर के खीर का दान दे दो! इतने महान दानवीर बन जाओ! परन्तु ऐसे दान देने मात्र से शालिभद्र नहीं बना जाता। वह गोपालक बच्चा उसी रात को शूलरोग से मर गया था। मृत्यु के समय भी उसका मन उस मुनिराज में था।
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