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प्रवचन- २
२४
है! बुद्धिमान मानव की भीख माँगने की पद्धति निराली होती है ! वह भीख माँगेगा परन्तु भिखारी नहीं दिखेगा ! वह पाप करेगा परन्तु पापी नहीं दिखेगा ! बुद्धिमान है न! यह बुद्धिमत्ता नहीं है । जहाँ बिना माँगे मिलता हो, वहाँ माँगना बुद्धिमत्ता नहीं है, मूर्खता है ।
मनुष्य जन्मता है तभी से माँगने लगता है। छोटा होता है, बोलना नहीं आता है, तो रोकर माँगेगा । बच्चा रोता है तो माता समझ लेती है कि बच्चे को दूध चाहिए। फिर, जब बोलना सीखता है, तब बोलकर माँगता है। माता से और पिता से माँगता है। भाई से, बहन से, मित्रों से, स्वजनों से, बस माँगता ही रहता है! कुछ न कुछ माँगता है । गुरु से भी माँगता है और परमात्मा से भी माँगता है! जब तक यह भिखारीपन दूर न होगा, मनुष्य धर्म का सर्वोच्च फल, वास्तविक फल नहीं पा सकेगा। मेरी राय मानोगे? सब जगह भिखारी मत बनो । परमात्मा के आगे, गुरुजनों के आगे और धर्म के आगे भिखारी मत बनो। धन के भिखारी मत बनो, भोगसुख के भिखारी मत बनो। धर्म को, धर्मसत्ता को भिखारी पसन्द नहीं । माँगनेवालों के प्रति सख्त नफरत है धर्म को । जो मन से भी कुछ नहीं माँगता है और धर्म करता है, धर्म की शरण में आता है, तो धर्म उसको इतना देता है, ऐसा अद्भुत देता है कि जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकता वह जीवात्मा । उस ग्वाले के बेटे को कल्पनातीत धन-संपत्ति और भोगसुख दिए न?
धर्म सब कुछ देता है, परन्तु जीवों की योग्यता अपेक्षित होती है। ज्यों-ज्यों जीव की योग्यता का विकास होता जाता है, त्यों-त्यों धर्मतत्त्व की निकटता बढ़ती जाती है और उत्तरोत्तर उच्च - उच्चतर सुखों की स्वतः उपलब्धि होती जाती है। जब तक जीवात्मा अर्थ- काम का अभिलाषी है, मात्र साधन के रूप में नहीं, लेकिन अर्थ-काम ही साध्य है, अभ्युदय ही उसका लक्ष्य है; तब तक समझना चाहिए कि उसकी योग्यता परिपक्व नहीं हुई है।
आत्मकल्याण को ही जीवन का ध्येय बनाइए :
अर्थ - काम जीवमात्र के जीवन में, मनुष्यमात्र के जीवन में आवश्यक होंगे, अपने अर्थ-काम के बिना नहीं रह सकते हैं, जीवन नहीं जी सकते हैं, हो सकता है, परन्तु हमारा लक्ष्य, हमारा ध्येय अर्थ - काम ही नहीं हो । अभ्युदय मात्र साधन के रूप में उपादेय है, साध्य के रूप में कभी भी उपादेय नहीं बन सकता है। साध्य तो रहेगा निःश्रेयस् ही! क्या लक्ष्य बनाया है आप लोगों ने?
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