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प्रवचन- ३
३८
पुण्यकर्म के क्षय से - नाश होने से मोक्ष मिलता है! पापकर्म और पुण्यकर्म का नाश भी धर्म से ही होता है । करना है कर्मों का समूल नाश ?
सभा में से : मोक्ष पाना है तो कर्मक्षय करना ही पड़ेगा ।
महाराजश्री : मोक्ष पाना है आप लोगों को ? संसार के भौतिक सुख अब आपको पसन्द नहीं? पाँचों इन्द्रियों के विषयसुख अब अच्छे नहीं लगते हैं न? पुण्यकर्म के उदय से मिलनेवाले अर्थ, काम और स्वर्ग के सुख अब नहीं भाते हैं न? तब तो काम हो गया आप लोगों का ! हाँ मुझे खुश करने के लिए तो नहीं कह रहे हो न? 'मोक्ष पाने की बात करेंगे तो महाराज साहब खुश हो जायेंगे और वे मानेंगे कि ये मोक्षाभिलाषी जीव हैं, उनकी निगाहों में अपने अच्छे आदमी के रूप में दिखेंगे' ऐसी तो कोई बात नहीं है न ? अच्छा, आपको मोक्ष पाना है, मुक्ति में जाना है - यह बात आप अपने घर में भी करते होंगे ? पत्नी को, बच्चों को, मित्रों को... करते हो न ? 'देखो, यह संसार दुःखरूप है, असार है, संसार में मिलनेवाले सुख भी भोगने योग्य नहीं हैं। मैं तो अब संसार छोड़ना चाहता हूँ । कर्मों के बन्धन तोड़ने के लिए चारित्र्य वीकार करना चाहता हूँ। तुम लोग भी सोच लो, अपने सब साथ ही चारित्र्यधर्म अंगीकार कर लें ।' ऐसी बातें घर में चलती रहती हैं न?
सभा में से : घर में ऐसी बातें करें तो भयंकर धमाका हो जाय!
महाराजश्री : इसलिए ऐसी बातें नहीं करते? मेरे सामने भी झूठ ? कभी कही है ऐसी बात? कभी हुई धमाल ? योंही कैसे मान लिया कि चारित्र्यधर्मसाधुधर्म स्वीकार करने की बात करेंगे, तो धमाका हो जाएगा? करके देखो प्रयोग! अथवा यूँ कहो कि 'हम लोग मोक्ष पाने की मात्र बात ही करते हैं, मोक्ष पाने की कोई तमन्ना नहीं है ! वह जीवराज सेठ था न ! नारदजी के साथ मोक्ष की, वैकुंठ में जाने की बातें ही वह किया करता था !
एक था सेठ, उसे प्यारा था वैकुंठ :
पुराने समय की बात है । उस समय यह शहर इतना बड़ा नगर नहीं था । छोटा-सा शहर था। पानी के नल नहीं थे, बिजली नहीं थी। बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें नहीं थीं। बड़ी कपड़ा मारकीट भी नहीं थी । वहाँ तो था बड़ा मैदान । मैदान के किनारे जीवराज सेठ की दुकान थी । जीवराज सेठ धनवान थे । बड़ी हवेली में रहते थे। सेठ जैसे अर्थपुरुषार्थ करते थे, कामभोग भोगते थे, वैसे धर्म भी किया करते थे। धर्मक्रियाएँ करने का सेठ का शौक था । ललाट में
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