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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ दीपकके बूजगएभी आगमोक्त वस्तु आचरणासें सम्यकदृष्टी पुरष आचार्योकी परंपरासें जानते हैं इसका नाम आचरणा कहते हैं ॥२३॥
तथा धर्मीजनो मे पूर्वकालमें जीता था और वर्तमानमें जीवे है अरु अनागत कालमें जीवेगा जैनशास्त्रमें कुशल तिसकों जित कहते है तिस जीतका नामही आचरणा कहते है ॥२४॥
तिस वास्ते जो अज्ञातमूल होवे, जिसकी खबर न होवे के यह आचरणा किस आचार्योनें किस कालमें चलाइ है, तिसकू अज्ञातमूल कहते है जैसी अज्ञातमूल आचरणा हिंसारहित और शुभध्यान की जननी होवे, अरु आचार्योकी परंरपराय करके प्राप्त होवे, तिस आचरणाकों सूत्रकी तरे प्रमाणभूत माननी चाहिये ।।२५।। इति भाष्यवचनात् आचरणाका स्वरुप ।
(८) तथा श्रीप्रवचनसारोद्धार वृत्तिमेंभी ऐसा लेख है । इयं स्तुतिश्चतुर्थी गीतार्थाचरणेनैव क्रियते गीतार्थाचरणं तु मूलगणधरभणितमिव सर्वं विधेयमेव सर्वैरपि मुमुक्षुभिरिति ॥ अस्य भाषा ॥ यह चोथी थुइ गीतार्थोकी आचरणासें करीये है और गीतार्थोंकी जो आचरणा है, सो मूल गणधरोंके कथन करे समान सर्व मोक्षार्थी साधुयोंकों सर्व करणे योग्य है । इस वास्ते चोथी थुइ जो कोइ निषेध करे सो मिथ्यात्वका हेतु है।
तथा जो कोइ चोथी थुइके अर्वाचीन शब्दका अर्वाक कालकी अंगीकार करी जैसा अर्थ समजते है तिनकी समजकी बहु भूल है, क्योंके विचारामृत संग्रह ग्रंथमें श्रीकुलमंडनसूरिजीयें जैसा लिखा है के, "श्रीवीरनिर्वाणात् वर्षसहस्त्रे पूर्वश्रुतं व्यवच्छिन्नं ॥ श्रीहरिभद्रसूरयस्तदनु पंचपंचाशता वर्षेः दिवं प्राप्ताः तद्ग्रंथकरणकालाच्चाचरणायाः पूर्वमेव संभवात् श्रुतदेवतादिकायोत्सर्गः पूर्वधरकालेपि संभवति स्मेति ॥
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