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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ संदिसाविय सुहज्झवसाओ जहन्नओ वि घडियादुगं चिट्ठ तदज्झवसाणे मुहपोतिं पडिलेहिय पढम खमासमणे सामाइयं पारेमि गुरु पुणोविकायव्वे बीय खमासमणे सामाइयं पारियं गुरु पूणो विजुत्ता नमत्तवो तओ छउमत्थो मूढमणोइच्चाइ गाहाओ भणति ॥ इति सामायिक विधिः ॥ "
( ३९ ) पृष्ट २८४ सें लेके पृष्ट ३९० तक जो इसने लेख लिखे है, तिसमें जो वचन पूर्वाचार्योंके लिखे है, वे सर्व सत्य है । और जो इसने अपनी कपोल कल्पनासे अगडम सगडम अंड बंड लिखा है तिस्सें जिनमंदिरमें और प्रतिक्रमणेकी आद्यंतमें चौथी थुइका निषेध किसी आचार्यने नहीं करा है किंतु इसीनेही करा है, और श्री सिद्धसेनाचार्यजी तो प्रवचनसारोद्धारकी वृत्तिमें गीतार्थोकी आचरणासे चौथी थुइ माननी कहते है । और गीतार्थ आचरणा गणधरोंके कहे समान सर्व मोक्षार्थीयोंकों करणे योग्य है । आपही श्रीधनविजयजी इस अपनी पोथीके पृष्ट १७१ में इसीतरें लिखता है फैर आपही तिसका निषेध करता है, इसी वास्ते इसके वचनों पर प्रतिती रखने योग्य नही है ।
पृष्ट ३९० में ललितविस्तरा पंजिकाका पाठ लिखा है सो पाठ यह है ॥
उचितेषूपयोगफलमेतदिति उचितेषू लोकोत्तरकुशलपरिणामनिबंधनतया योग्येष्वर्हदादिषूपयोगफलं प्रणिधानप्रयोजनम् चैत्यवंदनमित्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थमितिवेयावच्चः । तदपरिज्ञानेत्यादि तैर्वैयावृत्त्यकरा दिभिरपरिनेऽपि स्वविषयकायोत्सर्गस्यास्मात्कायोत्सर्गात्तस्य कायोत्सर्गकर्तुः शुभसिद्धौ विघ्नोपशम पुण्यबंधादिसिद्धौ इदमेव कायोत्सर्गप्रवर्त्तकं प्रवचनं ज्ञापकं गमकमाप्तोपदिष्टत्वेनाव्यभिचारित्वान्नच नैवासिद्धं अप्रतिष्ठितं प्रमाणांतरेणैव तदस्माच्छुभसिद्धिलक्षणं वस्तु कुत इत्याह अभिचारकादौ दृष्टांत धर्मिण्याभिचारुकेस्तोभन - स्तंभन मोहनादि फले कर्मणि, आदि
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