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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२
शब्दाच्छांतिक-पौष्टिकादि-शुभफल कर्मणिच, तथेक्षणात् स्तोभनीयस्तभनी -यादिभिरपरिज्ञानेपि आप्तोपदेशेन स्तोभनादिकर्मकर्तुरिष्टफलस्य स्तंभनादेः प्रत्यक्षानुमानाभ्यां दर्शनात् । प्रयोगो-यदाप्तोपदेशपूर्वकं कर्म तद्धिषयेणाज्ञातमपि कर्तुरिष्ट- फलकारि भवति यथा स्तोभनस्तंभनादि तथा चेदं वैयावृत्त्यकरादिविषयकायोत्सर्गकरणमिति ।।
इस पाठमें प्रगट चौथी थुइ ललितविस्तरामें लिखि हुइ की पंजिकामें लिखा है कि, वैयावृत्त्य करोंका कायोत्सर्ग करने वालेकों शुभ सिद्धिमें विघ्न उपशम पुण्यबंधादि सिद्धिमें यह आप्तोपदिष्ट कायोत्सर्ग प्रवर्तक वचन ज्ञापक है। यही प्रमाण है। अब सुज्ञजनोंकों विचारना चाहिये कि, जब वैयावृत्तकरोंका कायोत्सर्ग थुइ करनेसे शुभकी सिद्धिमें विघ्रोपशम
और पुण्यबंधादि होता है यह कहना आप्त अर्थात् यथार्थ वक्ता पुरुषका है, तो फिर जिनमंदिरमें, और प्रतिक्रमणमें, पूर्वोक्त कार्योत्सर्ग थुइ कहनेका श्रीधनविजय-राजेंद्रसूरिजी क्यों निबंध करते है ? क्या येह श्री हरिभद्रसूरिजी श्री मुनिचंद्रसूरिजीसे भी अधिक पठित और भवभीरु है ? नही किंतु, पूर्वाचार्योके तथा संघके निंदक कुमति मत स्थापक है।
(४०) पृष्ट ३९० सें लेके पृष्ट ४६४ तक इसने इतने शास्त्रोमें चार थुइसे चैत्यवंदना करनी लिखी है । १ ललितविस्तरा पंजिका श्री मुनिचंद्रसूरि कृत २ योगशास्त्र दीपिका श्री हेमचंद्रसूरि कृत ३ दिनचर्या श्री देवसूरि कृत ४ भावदेवसूरि कृत दिनचर्या ५ श्री नेमीचंद्रसूरि कृत प्रवचनसारोद्धार ६ श्री सिद्धसेनसूरि कृत प्रवचनसारोद्धारवृत्ति ७ श्री देवेंद्रसूरि कृत लघुभाष्य ८ श्री धर्मघोषसूरिकृत लघु चैत्यवंदनभाष्य वृत्ति ३९ श्री जिनप्रभसूरिकृत विधिप्रपा १० श्री मानविजयोपाध्याय कृत धर्मसंग्रह वृत्ति ११ इन पूर्वोक्त ग्रंथोंमें श्रीधनविजयजी लिखता है, चौथी थुइ सहित त्रण थुइना देववंदन पूजादि विशिष्ट कारणे करना कहा है। प्रथम
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