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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ प्रतिक्रमणकी विधियोंमें दैवसिक प्रतिक्रमणकी आदिमें सामान्यप्रकारे तथा जघन्य प्रकारे, तथा जघन्योत्कृष्ट प्रकारे चैत्यवंदना करनीही नही कही है, तथा भगवानादि च्यार ४ क्षमाश्रमणोंमें वंदना नही कही है, तो फेर तूं अपने आपकों पंचांगी प्रमाण मानने वाला क्यों कर समझता है ? क्योंकि तुं इस पोथीमेंही लिखता है कि, मैं और मेरे गुरु जघन्य प्रकारे, तथा जघन्योत्कृष्ट प्रकारे चैत्यवंदन प्रतिक्रमणकी आदिमें मानते, और कहते है । इस वास्ते तुम पंचांगीकी श्रद्धासें भ्रष्ट हो । और जो तूं पंचांगी प्रमाण नही मानता है, तो इस पोथीमें पंचांगीके पाठ तेने भोले जीवोंके बहका ने वास्ते लिखे सिद्ध होते है। तथा तेने जो लिखा है कि, पंचांगीमें तीन थुइसे चैत्यवंदना कही है, सो भी तेरी अज्ञताका सूचक है । क्यों कि, श्री संघाचार वृत्तिमें श्री धर्मघोषसूरिजी लिखते है कि, श्री ललितविस्तराके विना अनुक्रमसें चैत्यवंदनकी विधि अन्य किसी ग्रंथमें भी नही है। जे कर है तो ललितविस्तराके अनुसारे हि तिन ग्रंथोमें लिखा है, इस वास्ते इससे भी यह सिद्ध होता है कि, पंचांगीमें क्रम करके चैत्यवंदनाकी विधि नही कही है, तो भी पंचांगीका नाम लेकर तीन थुइ कहता फिरता है, सो तेरी ही उन्मत्तता प्रगट होती है। क्यों कि, जब श्रीधर्मघोषसूरिजी सदृश आचार्योकों भी पंचांगीमें क्रमसे चैत्यवंदनाका पाठ ज्ञात नही हुआ तो, तेरे सदृश मिथ्याभिमानीकों कहांसे हो गया? इस वास्ते तूं पंचांगीका विरोधी सिद्ध होता है।
(४५) पृष्ट ५५३ सें लेकर जो इसने पंचांगीके पाठसें राइ प्रतिक्रमणकी विधि लिखी है, तिनमें राइ प्रतिक्रमणकी अंतमें भगवानादि चार ४ क्षमाश्रमण करके वंदना कही नही है। परंतु येह करते है, इस वास्ते येह पंचांगीके विरोधी है । तथा राइ प्रतिक्रमणकी अंतमें जो जिनगृहमें वंदना करनी सामान्य प्रकारे कही है, तिनका स्वरुप कहा नही है। और येह किसी स्वरुपवाली चैत्यवंदना त्रण थुइकी थापन करता है, इस वास्ते भी
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