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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ जागरुक करवाने अर्थे सदा पडिक्कमणा मध्ये कहें छे त्रीजुं व्रत पालवाने हेतुए ॥११॥ ते जाणज्योजी।
ए रीते घणी चरचा छे तें पत्र मध्ये कितरी लिखाय ते माटे श्रद्धा चोखीज राखवी पिण मन डामाडोल करणो नही । देवता पिण समकित सामायक, श्रुत सामायिक सहित छ सो साधर्मिक छे तिणने उवेखें तो आशातना लग जाय, तिणस्युं दुर्लभबोधिपणुं पामे । ठाणांग सूत्र मध्ये कह्यो छे सो जाणासी जो ॥"
श्री गणि रुपविजयजीने योगोद्वहन पूर्वक अविछिन तपगच्छकी परंपरायसें गुरुयोंके मुखसें सत्य सत्य अर्थ ग्रहण करा है, सोइ सत्यार्थ है। परंतु, इन धनविजय राजेंद्रसूरि मतांधोने जो अर्थ लिखा है, सो सत्यार्थ नही है; किंतु निःकेवल उत्सूत्र रुप है, इस वास्ते सुज्ञ धर्मार्थी पुरुषोंको मानना न चाहिये. ॥ ऐसे ही सर्व पूर्वाचार्योने जहां जहां श्रुतदेवीकी स्तुति करी है, तहां तहां सर्वत्र प्रवचनाधिष्टात्री देवीही जाननी । और जिस जगें पूर्वाचार्योने श्रुतदेवीका अर्थ भगवंतकी वाणीका करा है, तिस जगें हमको भी वैसाही अर्थ प्रमाण है । परंतु धनविजय मतांधका लेख प्रमाण नही है, क्योंकि, इसकों झूठ लिखनेका त्याग नहीं है।
(५६) पृष्ट ६२५ सें पृष्ट ६२६ तक जो इसने पाक्षिक सूत्रका पाठ लिखा है, तिसमें भी अशुद्धता है। और जो इसने तिस पाठकी भाषा करी है, सो तो महा उत्सूत्र भाषण रुप महा मृषावादसें भरी है। और जो इसने इस पाठ परसें स्वकपोल कल्पनासे कल्पना करी है, सोभी इसकी महा मूढताकी सूचक है, सो नीचे मूजिब है ।।
"पाक्षिक सूत्र वृतिकार प्रश्न पूर्वक जिनेंद्र वाणी रुप श्रुताधिष्टातृ देवताने दृढ करे छे । ते पाठ ॥ सुय गाहा ॥ श्रुतर्महत्प्रवचनं श्रुताधिष्ठातृ देवता श्रुतदेवता संभवति च श्रुताधिष्टातृ देवता यदुकं कल्पभाष्ये ॥ सव्वं च लक्खणोवेयं समहटुंतिदेवता सुत्तं च लक्खणो वेयं जेण
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