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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२
लिखे है, और गणिश्री कीर्तिविजयजी गणिश्री कस्तुरविजयजी, गणिश्री मणिविजयजीकों असंयति लिखे है, सो लेख भी इसके मिथ्यादृष्टिपणेका सूचक है "असाहु सुसाहु पणा, साहुसु असाहु पणा मिच्छत्तं" इति वचनात् ॥
(४८) तथा इस राजेंद्रसूरिका गुरु प्रमोदविजय संवत् १९३४ में आहोर गामके उपाश्रयमें था, तिसके पास हमारे साधु गए थे, तिस अवसरमें प्रमोदविजय कच्चे जलसे स्नान कर रहा था, और परिग्रहधारी था, तथा गुप्त अनाचार करे होवेंगे सो तो उसहीकों मलूम होवेगा । तिस प्रमोदविजयका शिष्य यह रत्नविजय (राजेंद्रसूरि) महा असंयति हुआ, इसने जो जो अनाचार, षट्कायकी हिंसा, धूर्तोकी वृत्ति करके लोकोकों ठगना यंत्र, मंत्र करना, कच्चा पाणी पीना, असवारी उपर चढना, परिग्रह रखना गुप्तपणे अनाचारका करना इत्यादि अनेक असंयति अव्रतियोंके काम करे हैं; सो प्रायः सर्व श्री संघके लोक जानते है, तो फैर ऐसा असंयति, अप्रत्याख्यानी, षट्कायका हिंसक, परिग्रहधारी, अनाचारी, राजेंद्रसूरि ऐसें ही असंयति गुरु पास दीक्षा लीनी । अब विचार करना चाहिये कि जैनमतके शास्त्रानुसार तिसकों कैसें साधु मानता चाहिये ? और श्री महानिशीथ सूत्रमें तो, एक, दो, तीन, गुरु १ दादागुरु २ प्रदादागुरु ३ जिसके कुशीलीये होवे, सो पुरुष स्वयमेव क्रियोद्धार करे, और चारित्रकुशीलीयेके लक्षण पूर्वाचार्योने ऐसें लिखे है, सौभाग्यार्थे स्नान करे करावे १, ज्वरकी औषधी देवे २, विद्याबलसें प्रश्न कहें ३, निमित्तादि थापे प्रयुंजे ४, जाति कुल प्रमुखसें आजीविका करे ५, माया करे ६, स्त्री प्रमुखके अंगोके लक्षण कहे ७, मंत्रके आश्रय रहे ८, ऐसें अनाचारके मलसें चारित्रकों मलिन करे, तिसको चारित्रकुशीलीया कहा है। परंतु धनविजयके गुरु राजेंद्रसूरि प्रमोदविजयादि तो पूर्वोक्त चारित्रकुशीलीयेके लक्षणवाले
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