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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२
नही थे; किंतु असंयति, अविरती, अनाचारी, षट्कायके हिंसक, परिग्रहधारी, इत्यादि महा असंयमी गृहस्थी तुल्य और किसी कामकी अपेक्षा गृहस्थीसें भी अधिक पापी थे । ऐसे पुरुषोंकों तो श्री महानिशीथ सूत्रमें स्वयमेव क्रियोद्धार करनेवाले नही लिखे है।
और जो तुमने यह लिखा है कि, आत्माराम आनंदविजयने ढुंढकमत छोसके पाषंडमत कपडे रंगनेका धारा है; सो भी तुमारी निविवेकताका सूचक है । क्योंकि, आगे भी लुंपक गच्छके श्री पुज्य मेघजीऋषिने, लुंपक मतको जैनशास्त्रोसें विरुद्ध जानके, २५ पच्चीस यतियों सहित श्री तपगच्छाचार्य श्री हीरविजयसूरिके पास फेरके दीक्षा लीनी, और श्री मेघविजय उपाध्याय, इस नामसे प्रसिद्ध हुए । ऐसे आगे कितने ही महात्मायोने कुमतकों छोडकर जैनमत अंगीकार करा है । तैसें में भी ढुंढक मतमें अपनी महा महिमाको छोडकर जैन सिद्धांतानुसार श्री तपगच्छकी समाचारीका शरणा लीना है। और श्री बुद्धिविजयजीकों मैने गुरु करे है, सो तो ऐसे त्यागी वैरागी निस्पृही पुरुष थे कि, जिनोंकी महिमा ढूंढक मतमें, और मारवाड गुजरात देश खास करके अहमदावादमें प्रसिद्ध है । परंतु राजेंद्रसूरिका गुरु प्रमोदविजय, जैसा असंयती, अव्रति, षट्कायका हिंसक, अनाचारी था, तैसे मेरे सद्गुरु नही थे।
(४९) और जो कपडे रंगनेसे कुलिंग मत धरनेवाला मुझकों लिखा है, सो भी मिथ्या है । क्योंकि, यह कपडे रंगनेकी रीति क्या जाने किस कारण से श्रीमदुपाध्याय यशोविजयजी गणिने, और श्री विजयसिंहसूरिके शिष्य श्री सत्यविजयजी गणिजीने और श्री ज्ञानविमलसूरिजीने प्रवर्त्तता करी है। परंतु आत्माराम आनंदविजयजीने नही चलाई है. और हमारी यह भी श्रद्धा नहीं है कि, महावीरके शासनमें साधुकों रंगे हुए वस्त्र ही चाहिये । इस वास्ते वस्त्र रंगके रखनेमें भी दोष
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