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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग - २
जिनचैत्यमें चोथी थुइका निषेध नही करा है । इस श्रीधनविजयजीने ही चौथी थुइके निषेध करण रुप महा पापकारी उत्सूत्र भाषणकी पोट उठाइ है । और श्रीधनविजयजी जो लिखता है कि, तीन थूइकी परंपरा पूर्वधर आचार्योंसे चली आई है, यह भी लिखना महा मिथ्या है, क्यों कि श्री तपगच्छके भट्टारक श्री मुनिसुंदरसूरीश्वरजीकें शिष्य श्री विबुध हर्ष भूषणजी अपने रचे श्राद्धविधि विनिश्चय ग्रंथमें लिखते है कि,
"हुंनंदेंद्रियरुद्र १९५९ काल जनितः पक्षोस्तिराकांकितो, वेदा भ्रारुण १२०४ काल औष्ट्रिक भवो विश्वार्क कार्ले १२१४ चलः ॥ षट्त्र्यर्केषु १२३६ च सार्द्धपूर्णिम इति व्योमेंद्रियार्के पूनर्वर्षे १२५० त्रिस्तुतिकः कलौ जिनमते जाताः स्वकीयाग्रहात् ॥१ ॥ "
इस काव्यका भावार्थ यह है कि संवत् १९५९ में पूनमिया मत निकला, और १२०४ में औष्ट्रिक अर्थात् खरतर नीकला, १२१४ में अंचलमत, १२३६ में सार्द्धपूर्णिम मत १२५० में तीन थुइ मानने वालेका मक नीकाला, ये सर्व मत कलियुगमें स्वाग्रहात् अपने मिथ्या आग्रहसे नीकले है, परंतु जैन सिद्धांत सम्मत नहीं, इत्यर्थः ।
(१०) अब भव्य जनोको विचार करना चाहिये कि, जे कर तीन थुइयोका मत पूर्वधरोको सम्मत होता, तो श्री तपगच्छके भट्टारक श्री मुनिसुंदरसूरिजीके शिष्य ऐसे क्यों लिखते है कि, १२५० में तीन थुइके मानने वालोंका मत स्वाग्रहसे कलियुगमें निकाला है, जे कर कोइ मिथ्यामती कहै, हमको यह लेख प्रमाण नही है । तब तिसको कहना कि जिस गच्छके आचार्योको तुमने गुरु परंपरायमें माने है, उनका ही लेख मान्य नही करना, इससे अधिक मिथ्यावादी उत्सूत्र भाषी, स्वछंद मति, गुरु परंपरा वर्जित, कदाग्रही, सर्व तपगच्छके आचार्योकों मिथ्यावादी और खोटी समाचारी चलाने वाले कहनेवाला तुमारे विना और कोइ भी मालूम नही होता है, जेकर तुम अपने ही वृद्धोंकों झूठा लेख लिखनेवाले मानते
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