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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२ मोकलवा मोकलाववामां दोष गणिए छीए तो गृहस्थीने कागल पत्र लखवा, लखाववा, मोकलाववानो तो अमारो व्यवहारज नथी, प्रथम तो इस लेखसे श्रीराजेंद्रसूरि-धनविजयजी जिनशास्त्रके अनभिज्ञ प्रगट होते है । क्यों कि, श्री कल्पभाष्य वृत्तिमें लिखा है कि साधु राज्यांतरमें रहे हुए साधुकों पत्रव्यवहार वा किसी पुरुष द्वारा आदेश भेजे ॥
___ तथा च तत्पाठः ॥ अथ यत्र राज्ये गंतुकामास्तत्र प्रविशतां विधिमाह ॥ जत्थवि य गंतुकामा तत्थवि कारिंति तेसिं नायंतु आरक्खियाइ ते विय तेणेव कमेण पुच्छंति ॥ यत्रापि राज्ये गंतुकामास्तत्रापि ये साधवो वर्त्तते तेषां लेखप्रेषणेन संदेसप्रेषणेन वासमवज्ञातं कुर्वंति यथा वयमितो राज्यात्तत्रागंतुकामा अतो भवद्भिस्तबारक्षकादीन ततः पृच्छति यदा तैरनुज्ञातं भवति तान् साधुन् ज्ञापयंति आरक्षितादिभिरत्रानुद्भिरतमस्ति भवद्भिरत्रागंतव्यं एष निर्गमने प्रवेशे च विधिरुक्तः ॥"
इसका भावार्थ लिखते है । अब जिस राज्यमें जानेका कामी होवे तिसमें प्रवेश करनेकी विधि कहते है। जिस राज्यमें जानेके कामी होवे तहां भी जे साधु आगे होवे तिनको पत्रिका भेज करके अथवा पुरुष द्वारा ज्ञात करे यथा हम इस राज्यसें तहां तुमारे पास आनेके कामी है इस वास्ते तुमनें तहां कोटवालादिकोंको पूछना तब वे साधु कोटवालादिकांकों पूछे जब वे कोटवालादि आज्ञा देवे तब वे साधु तिन आनेवाले साधुयोंकों पूर्वोक्त रीतिसें ज्ञात करे कि कोटवालादिकोने तुमारे आने वास्ते आज्ञा दीनी है इस वास्ते तुमने इहां आजाना ॥
अब भव्य जनांकों विचारना चाहिये कि श्रीराजेंद्रसूरिजीने जो शेठ प्रेमाभाईके आगे यह कथन करा कि "हमे कागल मोकलाववामां दोष गणीए छीए" यह कथन इनोंका मृषावाद, और उत्सूत्र भाषण रुप है कि नहीं ? क्यों कि, सिद्धांतमें तो साधुको कारण वास्ते पत्र लेख भेजनेकी
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