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श्रीचतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-२
पंडित हाथ जोडीने बोल्यो के हुं हार्यो, ए यवनी भाषा वेद निषिद्ध माटे हुं भण्यो नथी. आचार्यजीनी जीत थइ."
यह श्रीधनविजयजीकी महा मूढताकी गप्प है, क्यों कि फारसी पढा हुआ कुरानका अर्थ नही कह सक्ता है और कुरान अर्बी बोलीमें है, यह गौका लघुबंधव क्या जाने ? अबी फारसी क्या होती है ? युही एक झूठी गप्प लिख दीनी है। खबर नही पंडित हार्या, वा मश्करी करी । अपरं च इस श्रीधनविजयजीके लेखसे ही मलूम होती है कि, यह महापुरुषोकों कलंक देनेवाला है। क्यों कि प्रथम तो इसने लिखा कि, जैन से धर्मका वाद होवे उसी धर्मके शास्त्र दीखाने और पश्चात् लिखता है कि दूसरे दिन कुरानकी कीताब कही। इस उपरसें भव्य प्राणीयोंकों विचारना चाहिये कि, यह श्रीधनविजयजी कैसा गप्पी और पूर्व पुरुषोको कलंकका देनेवाला है ? क्यों कि, इस श्रीधनविजयजीके लेखसें तो यही सिद्ध होता है कि आचार्य अपनी प्रतिज्ञासें पराङ्मुख हो गये । वाह रे वाह ! श्रीधनविजयजी ! खूब अपने पूर्वजोकी स्तुति कीनी ॥
(१६) पृष्ट ४२ पर लिखता है कि "एक सामान्य द्रव्यवाला श्रावके आचार्य पदनो ओच्छव को तेना उपर करुणा भावथी तेनुं दारिद्र कापवा चित्रावेल जोवा गया" एक श्रावक की दया विचारी अपनी मतलब वास्ते, और धन होने से जो आरंभादि होना था,तिसके इच्छक असंख्य जीवोकी घात करने गये, परंतु चित्रावेली मिली नही यही अच्छा हुआ । इस लेखके देखनेॐ श्रीधनविजयजीकी कैसी गुणग्रहण करणेवाली बुद्धि है। यह जो कुपंथ चलाया है सो ऐसी ही बुद्धिका प्रभाव है।
पृष्ट ४३ में लिखता है कि "एकदा विहार करतां बनास नदी उतरतां चित्रावेलीए पगने आंटो खाधो ते पगथी वेगली करीने बोल्या के कार्य हतुं त्यारे तो हाथ आवी नही, तो हवे ताराथी शुं काम छे ? हवे तो
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